देहरादून। विनय पत्रिका में संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि यूं तो परमात्मा सर्वज्ञाता, सर्वव्यापक, सर्वअंर्तयामी तथा सर्व समर्थ सत्ता होते हैं पर कभी कभी प्रभु भी अपनी प्रभुताई को अत्यन्त गौण (छोटी) कर लिया करते हैं। भगवान को लीलाधारी भी कहा जाता है। अपनी विभिन्न लीलाओं (अभिनय) के द्वारा उनका एक मात्र कार्य अपने भक्त का कल्याण करना ही रहता है। भगवान पूर्ण सदगुरूदेव के भेष में संसार में अवतरण लिया करते हैं। सदगुरू के साधारण से भी अति साधारण रूप में वह जनमानस के बीच आकर उनके समस्त दुख-दर्दों और मानवीय पीड़ाओं का शमन उन्हीं के जैसा बनकर किया करते हैं। सर्वगुण सम्पन्न और सर्व कलाओं के ज्ञाता गुरूदेव कभी अपने गुणों का बखान नहीं किया करते बल्कि समदर्शी सदगुरूदेव तो सदा अपने भक्तों-शिष्यों के ही गुणों को उभारते हैं और साथ ही अपनी समस्त कृपाओं को अदृश्य कर शिष्य को श्रेय देते हुए उसके ही गुणों को अधिमान दिया करते हैं। भगवान की सरलता और सहज़ता इतनी कि वे श्रीराम बनकर केवट से पार लगाने की याचना किया करते हैं। जीव जगत को भवसागर से पार लगा देने वाले प्रभु गंगा नदी को पार करने में केवट की सेवा प्राप्त करते हैं। सतयुग में जो प्रभु दो पग भूमि में समस्त ब्रह्माण्ड और सम्पूर्ण आकाश को नाप लिया करते हैं वही प्रभु अपने भक्त बलि की याचना पर उसके द्वारपाल बन नियुक्त हो जाते हैं। सैन नाई जब राजा की हजामत और मालिश करने की बजाए रात भर साधुजनों के संग ईश्वर की लीलाओं को श्रवण करने में रह जाता है तब भगवान उसके स्थान पर राजा की सेवा तक कर बैठते हैं। कबीरदास जी के घर में प्रभु उनके भरण-पोषण की सामग्री स्वयं पहुंचा आते हैं। श्रीराम अपने शत्रु रावण के भाई विभीषण पर अगाद्य विश्वास कर उसे शरण ही प्रदान नहीं करते अपितु समय से पूर्व लंकेश की उपाधि से अलंकृत भी कर देते हैं। एैसे बांधा था विभीषण को प्रभु ने अपने प्रेम पाश में। ईश्वर कभी अपने भक्त के दोष नहीं देखते बल्कि वे तो गुणों को रोपित कर देने की भी विलक्षण क्षमता रखते हैं। जो भक्त प्रभु के कार्य में स्वयं को लगाता है तो प्रभु भी अपने उस भक्त के काज़ संवारने में पल भी नहीं लगाते हैं। मानव देह में अवतरित गुरू सूक्ष्म ईश्वर का स्थूल स्वरूप हुआ करते हैं। पावन शास्त्र-ग्रन्थ एैसे परम गुरू की दिव्य महिमा से भरे पड़े हैं। कहा भी गया- गुरू परमेश्वर एको जाण….।
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के तत्वाधान में आज निरंजनपुर, देहरादून स्थित आश्रम सभागार में सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी ने संगत के समक्ष ईश्वर की अपने भक्तों पर उच्चतम कृपाओं और सदगुरू के रूप में धराधाम पर प्रकट हुई सामर्थ्यवान सत्ता की करूणा का बखान करते हुए आज के अपने सत्संग-प्रवचनों को प्रस्तुत किया। उपरोक्त सारगर्भित विचारों को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने भक्त अजामिल के जीवन की घटना का भी सविस्तार वर्णन करते हुए बताया कि कैसे उनका नारायण-नारायण के जाप द्वारा कल्याण हो गया। सदगुरू को उन्होंने दान करने वाली परम शक्ति भी बताया और कहा कि असंख्य उदाहरण हैं कि भगवान ने अपने भक्तों को समय आने पर वह सब दिया जिसकी उन्हांेने कभी कल्पना मात्र भी नहीं की थी। सुदामा जी का प्रसंग रखते हुए उन्होंने कहा कि थोड़े से चावलों के बदले भगवान उन्हें तीनों लोक दे देने पर उद्यत हो गए थे। गुरूदेव की उदारता का कोई ठिकाना नहीं, वे जब देने पर आते हैं तो शिष्य की झोली में अपने ही स्तर की महान नेमत डाल दिया करते हैं। गुरू जब मौज में होते हैं तो शिष्य के लिए अपने स्वयं के कायदे-कानून भी उलट दिया करते हैं। प्रकृति और यहां तक कि विधाता भी उनके कार्य में हस्तक्षेप करने का साहस नहीं कर पाते।
सुन्दरतम भजनों की अविरल प्रस्तुति भक्तजनों को अभिभूत कर गई। 1- सेवक पे सतगुरू जी करूणा बनाए रखना, चरणों से अपने मुझको हर दम लगाए रखना……. 2- याचना प्रभु चरणों में…… 3- तेरे दर पे बीते मेरी ज़िन्दगानी, मेरे दाता तुझसे है आरजू यही…… 4- मन मंे बसाके तेरी मूर्ति, उतारूं मैं गुरूवर तेरी आरती, संासों की माला पे सुमिरूं मैं पी का नाम…… तथा 5- आज तक ना मिला तेरे जैसा कोई, मेरा दिल खिल गया तुझको पाने के बाद……. इत्यादि भजनों के द्वारा खूब समां बांधा गया।
भजनों की मिमांसा के साथ-साथ मंच संचालन साध्वी विदुषी भक्ति प्रभा भारती जी के द्वारा किया गया। साध्वी जी ने अपने विवेचन के मध्य बताया कि सत्संग-प्रवचन मनुष्य को भक्ति के सफ़र पर अग्रसर करने का कार्य किया करते हैं। ईश्वर बार-बार दया करते हैं और स्वयं तक पहुंचाने के लिए मनुष्य को पूर्ण गुरू का सत्संग, उनकी भक्ति और पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ का सशक्त माध्यम प्रदान कराते हैं। मानव जीवन एक नदी की निरंतर बहती हुई धारा के समान है जिसमें अनेक प्रकार की बाधाएं, बड़े-बड़े संघर्ष इसका मार्ग अवरूद्ध करने के लिए आते हैं, बड़ी-बड़ी चट्टानों से यह निरंतर टकराती है लेकिन रूकती नहीं, नित बस! चलती ही रहती है, तब तक बहती रहती है जब तक अपने लक्ष्य सागर का वरण नहीं कर लेती। मनुष्य का जीवन अनेक द्वन्दों से परिपूर्ण और अनेक विषमताओं से भरा होता है, मनुष्य जीवन एक दुर्लभ अवसर है, इसके रहते-रहते अपने परम लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति कर ली जाए। इस मानव जन्म का पूर्ण लाभ तभी उठाया जा सकता है जब पूर्ण गुरू की शरणागति मानव को प्राप्त हो जाए। उन्होंने कहा कि प्रत्येक साधक द्वारा प्रार्थना अन्तः करण की पुकार के रूप में श्री गुरूदेव के चरणों होनी चाहिए जो कि भक्तिमार्ग की बाधाओं-संघर्षों से मुक्ति प्रदान करने हेतु एक अत्यंत कारगर उपाय है। जब एक साधक प्रार्थना करता है तो साधक द्वारा बोला जाता है और गुरूदेव उसे सुनते हैं, जब कि साधक द्वारा जब साधना की जाती है तब गुरूदेव बोलते हैं और साधक सुना करता है। जब शिष्य के हृदय तार पूर्ण रूपेण सदगुरूदेव के दिव्य हृदय के साथ जुड़ जाते हैं तभी शिष्य और गुरू दोनो इकमिक होकर शिष्य को गुरूदेव लोक कल्याण के महान कार्यों को सम्पादित करने की दिशा में अग्रसर करने लगते हैं, शिष्य को गुरू द्वारा समस्त आदेश-निर्देश भीतर ही प्राप्त होेने लगते हैं और गुरू द्वारा शिष्य को सटीक मार्ग दर्शन अंर्तजगत के भीतर प्राप्त होते जाते हैं। करूणानिधि गुरूदेव अपनी शरण में आने वाले समस्त शरणागतों पर एक समान कृपा किया करते हैं, ठीक इस प्रकार जैसे आसमान से बरसते हुए बादल सब स्थानों पर एक सा जल बरसाते हैं, बस! धरती जैसी होगी वर्षा का लाभ उसे वैसा ही होगा। जो शिष्य सकारात्मक नज़रिया लेकर भक्ति पथ पर बढ़ते हैं तो यह गुरू कृपा उन पर अनन्त रूप से बरसती है। केवट जैसा प्रेम, शबरी जैसा धैर्य और प्रह्लाद जैसा विश्वास अगर हो तो सदगुरूदेव के चरण कमल सदा एैसे भक्तों के ‘प्रक्षालन’ के लिए सदैव उनके निकट रहा करते हैं। जो भक्त गुरूत्वाकर्षण से परिपूर्ण हैं वही इस दिव्य आकर्षण के वशीभूत हो गुरू की समस्त अनन्त कृपाओं को सहज़ता से प्राप्त कर लेता हैं। लोक और परलोक दोनों संवार लिया करता है।
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।