जीवन ‘युद्ध’ को ‘अभिमान’ रहित होकर ही ‘जीता’ जा सकता है- साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी

देहरादून। महापुरूष कहते हैं कि समय और परिस्थिति को बदलते देर नहीं लगती इसलिए मनुष्य को मिथ्या अभिमान कभी नहीं करना चाहिए। अहंकार तो प्रत्येक व्यक्ति, हर हाल में केवल हानि ही प्रदान किया करता है। भक्त को भी अभिमान हो जाया करता है। ज्ञान का अभिमान, ईश्वर से प्रेम का अभिमान, पूजा-आराधना का अभिमान एक भक्तात्मा को भी सर्पदंश की मांनिद डस लेता है। संसार रूपी मेला जीव को भटकाने का ही काम करता है लेकिन यदि नन्हें से बच्चे स्वरूप जीवात्मा ने अपनी उंगली अपने पिता (ईश्वर) को पकड़ा दी तो फिर वह जीवात्मा इस मेले में भटकता नहीं है, बिछुड़ता नहीं है, क्योंकि! ईश्वर रूपी परमपिता उसे अपने भक्ति रूपी लक्ष्य पर टिकाए रखता है। संसार में आकर जीवात्मा पर दुनिया के मायावी रंग जैसे-जैसे चढ़ते जाते हैं वह अपना लक्ष्य भी भूलता जाता है। वह भूल जाता है कि मेरे अंशी परमात्मा का मैं दिव्य अंश हूं और कुछ समय के लिए इस संसार रूपी मेले में रहकर मुझे अंततः वापस अपने मूल अर्थात अपने अंशी में ही जा मिलना है। संसार में कर्मसंस्कारों की मैल उस पर चढ़ती चली जाती है। विकारों की प्रबल आंधी मानव को उड़ाकर उसे ईश्वर से दूर कर देने पर आमादा होने लगती है क्योंकि प्रत्येक जीव विकारों के हाथों में फंसकर मज़बूर होकर रह जाता है। काम-क्रोध-लोभ-मोह और अहंकार का दंश उसे पल-पल डसता जाता है। अहंकार तो एक एैसा सर्वाधिक शक्तिशाली विकार है जो कि जीव को परमात्मा तक किसी भी स्थिति में पहुंचने ही नहीं देता। यह अहंकार एैसा होता है जो अपने अतिरिक्त अन्य सभी को तुच्छ समझता है, झूठे मान-प्रतिष्ठा के भँवर में डूबता चला जाता है और स्वंय को परमात्मा से कोसों दूर कर लेता है। आखिरकार इन निकृष्ट विकारों से मुक्ति पाने का कोई उपाय भी है अथवा नहीं? महापुरूषों ने बताया है कि समस्त बुराईयों-विकारों, कामनाओं, अहंकार और लोभ-मोह रूपी वासनाओं से पूर्णतः मुक्त कर देने वाली अमोघ ‘ब्रह्मविद्या’ है पूर्ण गुरू का पावन ‘ब्रह्मज्ञान’। ब्रह्मज्ञान में दीक्षित हो जाने के बाद जब एक शिष्य गुरू की आज्ञा में चलते हुए और उनके निर्देशानुसार ब्रह्मज्ञान की ध्यान-साधना करता है, सदगुरू की निष्काम भाव से सेवा करने लगता है, सत्संग की अपने भीतर प्यास जगाकर उसे नियम पूर्वक श्रवण करता है तब वह गुरू कृपा के द्वारा समस्त बुराईयों से मुक्ति प्राप्त कर अपना शुद्ध निर्माण कर लेता है। सदगुरू ही मात्र जीव का सम्पूर्ण परिवर्तन कर देने की दिव्य क्षमता से परिपूर्ण हुआ करते हैं। गुरू का येन-केन-प्रकरेण एक ही दिव्य कार्य हुआ करता है कि अपने शरणागत शिष्य का पूर्णरूपेण कायाकल्प कर देना। गुरू इतने सक्षम, इतने करूणाकर होते हैं कि वे अपने शिष्य के निर्माण के लिए अपने स्वयं के बनाए हुए ‘प्रोटोकॉल’ तक भी तोड़ दिया करते हैं। पूरे गुरू की शरण की प्राप्ति होना जीव का सर्वोच्च परम सौभाग्य होता है।
आज एक बार फिर से भक्तों के उत्साह अपने चर्मोत्कर्ष पर दृष्टिगोचर हुए। अवसर था दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा आयोजित रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का। संस्थान के निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में अपार जन-समूह उपस्थित हुआ। उपरोक्त सदविचारों को संगत के समक्ष सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी के द्वारा प्रस्तुत किए गए।
अहंकार रूपी बुराई पर प्रहार करते हुए साध्वी जी ने अनेक पौराणिक दृष्टांतों के द्वारा भक्तों को समझाया कि इस बुराई का सर्वाधिक दुष्प्रभाव भक्त की भगवान से मिलन की राह में बाधा के रूप में पड़ता है। उन्होंने देवराज इंद्र, देवर्षि नारद के साथ-साथ दानवीर अंगराज कर्ण के जीवन वृतांत को सुनाकर बताया कि इन महान हस्तियों को भी अहंकार के कारण कितने अपमान और कष्ट का सामना करना पड़ा था। इन प्रसंगों को श्रवण कर भक्तजन अभिभूत होते चले गए।
कार्यक्रम का शुभारम्भ मधुर भजनों की प्रस्तुति के साथ किया गया। अनेक मनभावन भजनों पर संगत करतल ध्वानि के साथ नृत्य करती दृष्टिगोचर हुई।
भजनों की सारगर्भित विवेचना के साथ-साथ मंच संचालन का कार्य साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया। उन्होंने बताया कि जो समय प्रभु में, उनकी भक्ति, उनके प्रेम में, उनके गुणानुवाद में लग गया मात्र वही समय मनुष्य का सफल है, सार्थक है। कबीर साहब कहते हैं- ‘कबीरा संगत साध की, सांईं आवे याद, लेखे में सोई घड़ी बाकी दिन बरबाद।’ उन्होंने कहा कि एक शिष्य अपने अनेक दुर्गुणों साथ लेकर पूर्ण गुरू की शरण में आता है, कर्मों के संस्कार जन्म-जन्मांतरों से मनुष्य के साथ-साथ चलते रहते हैं और जब तक इनका पूर्ण रूप से खात्मा नहीं हो जाता मानव बार-बार जन्मता है और बार-बार मरता है। पूर्ण सदगुरू सृष्टि की सामर्थ्यवान सत्ता होते हैं वह अपनी शरण में आने वाले शिष्य के जन्म-जन्मांतरों के कर्म-बंधनों के साथ-साथ उसका प्रारब्ध, संचित और क्रियामान सभी तरह के कर्मों को सँवार दिया करते हैं, उसके चौरासी के चक्रों को इसी मनुष्य जन्म में समाप्त कर उसको मुक्ति का वरदान दे दिया करते हैं। संसार के सभी संत-पंथ और ग्रन्थ सदगुरूदेव की इसी अहैतुकी कृपा को सम्वेत स्वर में गाया करते हैं। सत्संग एक सशक्त माध्यम है जो ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग बताता है, गुरू की पहचान और उनकी प्राप्ति करवाता है। त्रेताकाल में तो श्री हनुमान जी ने अपने छाती फाड़कर दिखा दिया था कि मेरे रोम-रोम में सियाराम बसते हैं। एैसे ही गुरू के शिष्य को अपनी छाती फाड़कर दिखाने की आवश्यकता नहीं है, अपितु! शिष्य का व्यवहार, उसकी वाणी, उसका चरित्र, उसका चलना-फिरना, उसका उठना-बैठना, समाज़ में उसका कार्यव्यवहार ही बता देता है कि शिष्य ने अपने गुरू के आदर्शों को कितना आत्मसात किया है क्योंकि एक सच्चा शिष्य ही अपने गुरू की अभिव्यक्ति बन जाता है। गुरू को जानने के लिए शिष्य का दिव्य आचरण ही उनकी पहचान देता है।

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