भक्त और भगवान के बीच ‘‘दिव्य सेतु’’ हैं ‘पूर्ण सदगुरूदेव’ -साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी

देहरादून। ईश्वर सर्वत्र हैं, जड़-चेतन सब में समाए हुए हैं लेकिन दिखते कब हैं? जब मनुष्य का परम सौभाग्य उदित होता है। पहले तो मनुष्य जन्म का ही मिलना दुर्लभ है, उस पर एक एैसे महापुरूष की प्राप्ति हो जाना जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ हों साथ ही पूर्णता को भी प्राप्त हांे। पूर्ण गुरू के सत्संग में आकर ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग दिखाया जाए और गुरू प्रदत्त सनातन पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ मिल जाए। सदगुरू ईश्वर को ‘दिव्य दृष्टि’ के द्वारा मनुष्य के हृदय के भीतर ही दिखा देते हैं। तात्विक रूप से ईश्वर का दर्शन और प्राप्ति दोनों को गुरूदेव सहज़-सरल बना दिया करते हैं। यह अहम बात है कि जीवन में पूर्ण संत-सदगुरू का पदार्पण हो जाए। मनुष्य देह अति दुर्लभ इसीलिए कही गई क्योंकि इसे प्राप्त करने के लिए देवी-देवता तक लालायित रहा करते हैं। देवी-देवता असीम पुण्यों के बल पर देवत्व प्राप्त कर स्वर्गिक सुखों को भोग रहे हैं, लेकिन! इन पुण्यों की समाप्ति पर फिर वे भी चौरासी के चक्रों में घिरेंगे ही घिरेंगे। वे चाहते हैं कि मनुष्यों की भांति वे भी धराधाम पर जन्म लंे, पूर्ण गुरू की शरणागत होकर पावन ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति करें, शाश्वत भक्ति करें और गुरू के मार्ग निर्देशन में परमात्मा की प्राप्ति करके अपना आवागमन समाप्त कर लें। यह विडम्बना की बात है कि मनुष्य को परमात्मा ने मानव देह के रूप में इतनी बड़ी सौगात प्रदान की और मानव सारा जीवन इधर-उधर ही भटकते रहकर अपना सम्पूर्ण जीवन यूं ही नष्ट कर दिया करता है। भवसागर पार होने के लिए एक उन्नत ज़हाज़ चाहिए, यह ज़हाज़ है गुरू प्रदत्त परमात्मा का आदि नाम, गुरू की निष्काम सेवा और प्रभु की अनन्य भक्ति। जो विरला मनुष्य इसे पा लेता है वह संसार सागर को पार कर पाता है। नानक साहब इसी पर कहते हैं- ‘नानक नाम ज़हाज़ है, चढ़े सो उतरे पार।’ भक्ति मार्ग में सेवा का बड़ा ही महत्व है। सदगुरूदेव की सेवा अगर निष्काम है, निस्वार्थ है और गुरूदेव की आज्ञा के अनुसार है तो यह भक्ति मार्ग की समस्त बाधाओं को निर्मूल करने का कार्य किया करती है। सेवा के संबंध में ही महापुरूषों ने कथन किया है- ‘सदगुरू की सेवा सफल है, जे कोई करे चित्त लाए।’ हृदय की निर्मलता से की गई सेवा गुरू को प्रसन्न कर देती है। सदगुरू के चरण कमलों में एैसी ही सेवा स्वीकार्य है जो कि भव-बंधन से मुक्त कर शिष्य का परम कल्याण कर देने में सक्षम है। कहते हैं- ‘कर सेवा गुरू चरणन की, युक्ति यही भव तरणन की।’ पावन शास्त्र-ग्रन्थ सेवा की महिमा से भरे पड़े हैं। भक्त शिरोमणि श्री हनुमान जी की सेवा अद्वितीय सेवा रही है। अपने आराध्य प्रभु श्री राम की अनेक प्रकार से सेवा करते हुए जब इन सेवाओं पर प्रभु के अन्य भक्तों ने अधिकार किया तब! श्री हनुमान जी ने चुटकी बजाने की आठों प्रहर की जाने वाली सेवा को चुना और इस प्रकार वे हर पल प्रभु श्री राम के दिव्य सानिध्य में सेवारत रहे। सेवा का आधार ही प्रभु को अपने भक्त के निकट ले आता है। सेतुबंध रामेश्वरम पर लंका विजय हेतु विशाल सेतु के निर्माण में अनेकों वानरों (वनों में रहने वाले नरों) के साथ-साथ रीछ भालू और अन्यान्य जीवों ने अपनी निष्काम सेवा के द्वारा प्रभु को आधार ही तो दिया था जिस छोटे से पुल पर जब प्रभु श्री राम आकर खड़े हुए तो वह छोटा सा पुल विशाल सुदृढ़ सेतु के रूप में परिवर्तित हो गया। छोटी सी गिलहरी तक ने अपनी नन्ही सी सेवा इसमे सम्मिलित कर भगवान श्री राम की प्रशंसा और कृपा दोनों प्राप्त की थी। श्री जामवंत जी ने जब प्रभु से कहा कि प्रभु जब आपके खड़े हो जाने मात्र से इतना विशाल सेतु बन जाना था तब हमें इतना परिश्रम करने की तो आवश्यकता ही नहीं थी। इस पर भगवान बोले थे कि- जामवंत जी जब आप लोगों ने एक छोटे पुल का मुझे आधार दिया तभी तो मैं इस पर खड़ा हुआ और देखते ही देखते विशाल सेतु का निर्माण हो गया। वास्तव में ही प्रभु को तो भक्त का दिया हुआ आधार चाहिए तभी वे अपनी कृपा बरसाते हैं। इसीलिए यह बात सर्वविदित है कि परमात्मा की प्राप्ति और मानव की मुक्ति तभी सम्भव है जब वह शाश्वत सनातन भक्ति जीवन में उतर आए जिस भक्ति को प्राप्त कर इतिहास में महापुरूषों ने अपना जीवन सार्थक किया। शास्त्रों का दिव्य उदघोष है कि इस भक्ति के प्रदाता हैं पूर्ण सदगुरूदेव। भक्त और भगवान के बीच ‘‘दिव्य सेतु’’ हैं पूर्ण सदगुरूदेव।
मानव समाज़ का परम कल्याण करने वाले इन महापुरूषों के दिव्य विचारों को संगत के समक्ष दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के संस्थापक-संचालक सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या और संस्थान की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी द्वारा प्रस्तुत किए गए। संस्थान के निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में हुए रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों तथा मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम में। संगीतज्ञों ने सुर-ताल की अनुपम धुन पर उपस्थित भक्तजनों को प्रभु प्रेम में नृत्य कर देने के लिए बाध्य कर दिया। 1-मुझे अपनी शरण में ले लो राम, लोचन मन में जगह न हो तो, युगल चरण में ले लो राम…… 2- गुरूवर हमको भक्ति दे दो, आपके ध्यान में सदा रहें हम, प्रभु इतनी शक्ति दे दो….. 3- फंसी भंवर में थी मेरी नइया, चलाई तूने तो चल पड़ी है…… 4- औरों की क्या बात करूं, मेरे दिल को एहसास हैं, दूर नहीं तू पास है……. 5- याद में तेरी हे गुरूवर…… तथा 6- मेरे मुर्शिद तेरा जब सहारा मिला, नाव मंझधार में थी किनारा मिला…… इत्यादि भजनों का गायन किया गया।
भजनों में छुपे गूढ़ आध्यात्मिक तथ्यों की गहन विवेचना करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी ने किया।
साध्वी जी ने बताया कि जिस प्रकार यदि एक बूंद सागर से विलग होकर अपना असतित्व सिद्ध करना चाहे तो यह नामुमकिन बात है क्योंकि सागर से अलग उसका कोई भी वजूद नहीं रह पाता। एैसे ही मानव भी अपने मूल परमात्मा से अलग होकर अपना असल असतित्व ही खो बैठता है। वृक्ष अपनी जड़ों से जुड़कर ही पुष्प-फल-छांव दे पाता है। जड़ विहीन कुछ भी सार्थक नहीं है। मनुष्य भी अपनी जड़ ईश्वर के साथ जुड़कर ही फल-फूल सकता है। यूं तो संसार में समस्त जीव, जीवन यापन कर ही लेते हैं। लेकिन! विवेकवान मनुष्य अपने जीवन के परम ध्येय को जानकर उसे प्राप्त करने की निरंतर चेष्टा किया करता है। शास्त्र सृष्टि के सिरमौर मानव को उसका ध्येय दर्शाते हैं। वास्तव में पवित्र शास्त्रों-ग्रन्थों का निर्माण ही महापुरूषांे ने मानव जगत को उसका लक्ष्य दिखाने के लिए किया है। शास्त्रानुसार सद्गुरू प्रदत्त ब्रह्मज्ञान ही वह सनातन शाश्वत दिव्य तकनीक है जो जीवात्मा को गहनता के साथ उसके मूल परमात्मा से जोड़ देता है, ‘इकमिक’ कर देता है। वास्तव में सदगुरू प्रदत्त ब्रह्मज्ञान एक दर्पण की नाईं है जिसमें शरणागत शिष्य को अपने जन्मों-जन्मों के साथ-साथ वर्तमान जन्म के समस्त कर्मसंस्कार, विकार, बुराईयां दिखलाई पड़ती हैं और गुरूदेव अपने दिव्य सानिध्य में उसे भक्ति मार्ग में चलाकर उसके समस्त कर्मसंस्कारों को धीरे-धीरे काट कर उसे अपने जैसा र्निविकार बना देते हैं। एक कुम्हार जैसे मिट्टी को चुनता है, भिगोता है, कूटता है, चाक पर धुमाता है, धूप में सुखाता है और इतने पर ही बस नहीं बल्कि तपती भटटी में झोंक कर तपाता है, तब! एक सुन्दर घड़े का निर्माण हो पाता है जिसकी कुछ कीमत होती है, जो गृहणी के शीश पर शोभा भी पाता है और शीतल जल से लोगों की प्यास भी बुझाता है। ठीक! इसी प्रकार सदगुरूदेव भी अपने शिष्य को इसी कुम्हार वाली पद्धति से उसका नवनिर्माण कर उसे अनमोल बना दिया करते हैं। आवश्यकता है कि मिट्टी रूपी शिष्य पूर्ण रूप से स्वयं को सदगुरूदेव के हाथों में साैंप दे। गुरू के संबंध में ही सुन्दर बात कही गई है- ‘गुरू कुम्हार शिष्य कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट, भीतर हाथ सहार के, बाहर मारे चोट।’ बस! पूर्ण गुरू और उनके अधीनस्थ शिष्य का इतना सा फलसफ़ा है, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं। जो शिष्य एैसा कर लेता है वास्तव में वही परम सौभाग्यशाली है। इसमें गुरू आज्ञा मुख्यतः अहम स्थान रखती है।
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।

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