देवता और मानव सभी में ‘ऊर्ज़ा’ का आधार हैं, आदि शक्ति जगदम्बा भवानी- साध्वी विदुषी भक्ति प्रभा भारती जी

देहरादून। पिता से सौ गुणा अधिक माता पूजनीय हैं क्योंकि वह संतान को जन्म देती हैं, उसकी पालना करती हैं, उसके भीतर संस्कार रोपित करती हैं, इसीलिए माता की तुलना धरती से की गई है, क्योंकि स्नेह, प्रेम और ममता की प्रतिमूर्ति होने के साथ-साथ माँ धरती के समान धैर्य, उदारता और विशालता को भी धारण किए हुए होती है। शास्त्रानुसार माता से भी अनन्त गुणा पूजनीय होते हैं पावन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ के प्रदाता पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरूदेव। सद्गुरूदेव अपने शरणागत शिष्य को जन्म देते हैं उसकी आत्मा का, उसे ‘द्विज’ बनाकर। गुरू अपने दिव्य निर्देशन में उसे शाश्वत भक्तिपथ पर चलाकर मानव से महामानव बना देने का दुर्लभ और विलक्षण कार्य किया करते हैं। सद्गुरू शिष्य के जीवन को उज्जवलता प्रदान करने के लिए निरन्तर अथक परिश्रम किया करते हैं, वे तब तक विश्राम नहीं करते जब तक शरणागत को उसके परम लक्ष्य ‘परमात्मा’ तक नहीं पहुंचा देते। एैसे गुरू ही शिष्य के जीवन में उसके सम्पूर्ण संकटमोचक की भूमिका निभाया करते हैं। शिष्य के हृदय से यही निकलता है-
‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या द्रविणम त्वमेव, त्वमेव सर्वम ममदेव देवः’ अर्थात हे गुरूवर आप माता बनकर आत्मिक जन्म के द्वारा हमें द्विज बनाते हो, पिता बनकर हर कदम हमारी पालना करते हो, भाई-बन्धु बनकर सदा सहाई रहते हो, मित्र बनकर कठिनाईयों से उबारते हो और ब्रह्मज्ञान की परम विद्या में पारंगत कर द्रविणम (द्रव्य) अर्थात धन-धान्य से हमें लाभान्वित कर लोक कल्याण के महान मार्ग पर निष्काम भाव से चलाएमान करते हो, आपको बारम्बार प्रणाम है। एैसे परम गुरू की महान गाथाओं से सम्पूर्ण शास्त्र-ग्रन्थ भरे हुए हैं। एैसे गुरू की शरण को प्राप्त कर ही मानव अपने परम लक्ष्य ईश्वर की प्राप्ति सुगमता से कर पाता है।
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की निरंजनपुर स्थित शाखा के आश्रम सभागार में यह सद्विचार आज सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या और संस्थान की प्रचारिका साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी के द्वारा भक्तजनों के समक्ष उज़ागर किए गए, अवसर था रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का। तत्पश्चात! साध्वी जी ने अपने प्रवचनांें को आजकल मनाए जा रहे ‘नवरात्र’ की ओर मोडते हुए माँ जगदम्बिका भवानी की महिमा के संबंध में बताया कि सम्पूर्ण जगत आज कल मातृमय हो रहा है, माता जगम्बिका भवानी के नवरूप गूढ़ आध्यात्मिक सन्देशों से परिपूर्ण हैं और मानव जगत को अनुपम सन्देश प्रसारित किया करते हैं। देवी भागवत के बारहवें स्कन्द की कथा का सारतत्व रखते हुए उन्होंने यक्ष तथा देवताओं का मार्मिक प्रसंग सुनाकर श्रोताओं का ज्ञानवर्धन किया कि किस प्रकार देवासुर संग्राम में माता की कृपा से जब देवताओं को विजय की प्राप्ति हो जाती है तो उनके भीतर अंहकार पैदा हो जाता है, तब! माँ उन्हंे समझाने तथा उनके अंहकार को समाप्त करने के लिए यक्ष का कौतुक रचती हैं और तब अग्निदेव, वायुदेव इत्यादि सहित देवराज इंद्र भी क्षमाशील हो माता का यशोगान करने लगते हैं। साध्वी जी ने माता के इन नौ रूपों का संक्षिप्त वर्णन कर संगत को बताया कि प्रथम शैलपुत्री यह दृढ़ भक्ति भावना का प्रतीक है जो बताता है कि किस प्रकार माता पार्वती जी ने दृढ़ तपस्या कर भगवान भोलेनाथ की प्राप्ति में आने वाली समस्त बाधाओं पर विजय प्राप्त की। सप्त ऋषियों की परीक्षाओं में भी अडोल रहकर शिव जी को प्राप्त किया। द्वितीय ब्रह्मचारिणी अर्थात ब्रह्म का आचरण करने का दिव्य संदेश इसमें विद्यमान है। संसार की कामनाओं- तृष्णाओं और वासनाओं से सर्वथा विलग होकर भक्तिपथ पर निरन्तर चलने का संदेश देती हैं। तीसरा है चंद्रघण्टा, यह संकेत है कि पांच कर्मेंन्द्रियों तथा पांच ज्ञानेन्द्रियों से ऊपर उठ कर अपने मन पर विजय प्राप्त करने का। चौथी कूष्मांडा, अर्थात ऊर्ज़ा से परिपूर्ण शक्ति, जैसे बीज में वृक्ष छुपा होता है वैसे ही प्रत्येक मानव में दैवीय शक्ति भी छुपी होती है जिसे पूर्ण गुरू प्रकट करने की सामर्थ्य रखते हैं पंचम स्कन्दमाता, ताड़कासुर के अत्याचारों से संसार को मुक्त कर माँ ने संदेश दिया कि मनुष्य के भीतर की विकृति और बुराईयां जो कि ताड़कासुर रूपी अंधकार के सदृश ही होती हैं, माँ की भक्ति से इनका संहार किया जा सकता है। षष्टम माँ कात्यायनी, यह माँ का वह स्वरूप है जो कि कात्यायन ऋषि के घोर तप से माँ के जन्म को प्रकट करता है, जिसने आसुरी शक्तियों का विनाश किया। सप्तम कालरात्रि, यह मत्यु का प्रतीक है। माँ को बलि अत्यन्त प्रिय है, लेकिन! किसी पशु की बलि नहीं अपितु मानव मन के पशुवत संस्कारों की बलि। अष्टम रूप महागौरी, अर्थात माँ ने बैल की सवारी की, बैल धर्म का प्रतीक है, धर्म जिसका कि शाब्दिक अर्थ है धारण करना। माँ अपने इस स्वरूप से संदेश देती हैं कि संसार में धारण करने योग्य मात्र परमात्मा हैं, जिन्हें सद्गुरू की शरण प्राप्त करने के उपरान्त ही धारण किया जा सकता है। नवम स्वरूप है सिद्धिदात्रि, उपरोक्त भक्तिपथ पर समग्रता पूर्वक चलने के उपरान्त अन्ततः जीव माँ की कृपा से अनेक रिद्धियों-सिद्धियों की प्राप्ति कर पाता है। माँ जगदम्बिका भवानी इन सिद्धियों की प्रदाता शक्ति हैं इसीलिए इन्हें कहा गया- सिद्धिदात्रि। यह नवरूप मानव के अर्न्तजगत में तभी अपनी छटा बिखेरते हैं जब मनुष्य किसी तत्वेता पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरू की शरणागत होकर सनातन पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ की प्राप्ति कर लेता है। पूर्ण गुरू के दिव्य सानिध्य में जब साधक निरन्तर शाश्वत् भक्ति के पथ पर चलता जाता है तब सम्पूर्ण ‘नवरात्र’ अपने दिव्य स्वरूप में उसके भीतर प्रकट होने लगते हैं। साध्वी जी ने महर्षि रमण तथा स्वामी रामकृष्ण परमहंस सहित संत सहजोबाई के वृतांत सुनाकर भक्तजनों को निहाल किया।
कार्यक्रम की शुरूआत में मंचासीन ब्रह्मज्ञानी संगीतज्ञों की टीम ने मनभावन भजनों की प्रस्तुति देते हुए श्रोताओं को भाव-विभोर किया गया। 1- गुरू चरण की वंदना में सुर सजा ले आज मन, सद्गुरू की अर्चना के गीत गा ले आज मन….. 2- आया दर पे तेरे, सुन भगवन मेरे, मेरी लाज रखो-मेरी लाज रखो….. 3- वो रिश्ता अपने भक्तों से कमाल रखता है, सद्गुरू ही तो सबका ख़्याल रखता है…… 4- दाता तेरे चरणों में ये जीवन गुज़र जाए…… 5- तू मिला है तो, सब ही मिल गया है…… तथा 6- तेरे शरणां ते शीश नवावाँ, ऊँचिए पहाड़ाँ वालिए माँ….. इत्यादि भजन प्रस्तुत किए गए।
भजनों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी ममता भारती जी के द्वारा किया गया।

साध्वी जी ने कहा कि सत्संग विचारों के आधार पर मानव अनन्त उँचाईयों पर पहुंच सकता है। यह माया बड़ी दुस्तर है, यह मनुष्य को परमात्मा तक पहुंचने के मार्ग में अनेक बाधाएं उत्पन्न किया करती है। अब! मनुष्य करे भी तो आखिर क्या करे? इसका महापुरूषों ने एक ही उपाय दर्शाया है कि मानव अपने जीवन में प्राप्ति करे किसी एैसे पूर्ण महापुरूष की जो ईश्वर के साथ ‘इकमिक’ हो तथा अपनी शरणागत में आने वाले जीव को भी ईश्वर का दर्शन तथा उनकी शाश्वत प्राप्ति करवा दे। वास्तव में प्रभु की वन्दना, उनका गुणगान तभी सम्भव है जब प्रभु की कृपा को भक्त पूर्णरूपेण जान लेता है, उन्हें समझ लेता है। यह जानना-समझना तभी हो सकता है जब ईश्वर को देख लिया जाता है। इसका माध्यम केवल एक ही है पूर्ण सद्गुरू प्रदत्त पावन ब्रह्मज्ञान। ब्रह्मज्ञान अर्थात ब्रह्म (परमात्मा) की पूर्ण जानकारी हो जाना। यह जानकारी पूर्ण गुरू मात्र शाब्दिक रूप से ही प्रदान नहीं किया करते अपितु क्रियात्मक-प्रयोगात्मक रूप से जन-मन के भीतर प्रकट कर दिया करते हैं। एक शिष्य तभी गुरू की कृपाओं को प्राप्त कर पाता है जब वह अपने गुरू की पूर्ण आज्ञा में चला करता है। वास्तव में गुरू आज्ञा में चलकर ही एक शिष्य ‘आज्ञाचक्र’ तक पहुंच सकता है।

प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।

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