विवेक-बुद्धि के प्रदाता हैं, भगवान श्री गणपति बप्पा- साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी

देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की शाखा, 70 इंदिरा गांधी मार्ग, (सत्यशील गैस गोदाम के सामने) निरंजनपुर के द्वारा आज आश्रम प्रांगण में दिव्य सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का भव्य आयोजन किया गया। सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी ने अपने आज के उदबोधन को श्री गणेश चतुर्थी पर केंद्रित करते हुए भक्तजनों को बताया कि यूं तो सम्पूर्ण भारतवर्ष में श्री गणेश चतुर्थी अर्थात भगवान गजानन का जन्मोत्सव बड़े हर्षोंल्लास के साथ मनाया जाता है परन्तु महाराष्ट्र के गणेशोत्सव की धूम तो सारे संसार में विख्यात है। अट्ठारवीं सदी तक यह महोत्सव गलियों, मोहल्लों, सामुदायिक केंद्रों तक ही सीमित रहकर छोटे-छोटे स्तर पर मनाया जाता था। सन् 1893 में श्री बाल गंगाधर तिलक ने विघ्नहर्ता श्री गणेश के जन्मोत्सव कार्यक्रमों को एकजुटता के साथ, संगठित होकर मनाने का चलन आरम्भ किया। भेदभाव, जाति-पाति, छोटे-बड़े का भेद मिटाकर यह त्यौहार विशाल स्तर पर मनाया जाने लगा। वैसे तो अब इसके भीतर अनेक प्रकार की कमियां दिखाई पड़ जाती हैं, जब इस त्यौहार को प्रतिस्पर्धा के दृष्टिकोण से देखा जाने लगता है। कानों को अप्रिय लगने वाला शोर-शराबा, डी.जे. पर अश्लील डांस, मदिरापान इत्यादि बुराईयों से इस पावन त्यौहार में निरंतर गिरावट दृष्टतव्य होती है। वास्तव में भगवान गणेश मात्र बाहरी रूप से पूजे जाने के ही विषय नहीं हैं वे तो पूर्ण रूपेण जान लेने के विषय हैं। जीवन में श्री गणेश की महिमा को जनाने वाले पूर्ण सद्गुरू का जब पदार्पण होगा तभी मानव को गणेश जी की महान महिमा को जानना सुलभ हो सकेगा। श्री गणेश के अग्र पूज्य वाले कथानक को विस्तार पूर्वक संगत के समक्ष रेखांकित करते हुए साध्वी जी ने कहा कि आज उद्घोष किया जाता है- ‘गणपति बप्पा मोरया………’ इसका तो अर्थ ही है कि हम गणपति जी को साकार रूप में अपने हृदय के भीतर धारण करें। नौ दिवस तक चलने वाले गणपति महोत्सव कार्यक्रम, जीव के नौ द्वारों, जहां से समस्त उर्ज़ा बर्हिगमन किया करती है, और दसवें दिवस गणपति विसर्जन इसी बात का प्रतीक है कि नौ द्वारों से ऊपर दशम द्वार में ही गजानन की प्राप्ति सम्भव है। यह दशम द्वार जो कि सर्वथा गुप्त होता है और सद्गुरू के कृपा रूपी ‘ब्रह्म्ज्ञान’ से ही भीतर की ओर खुलता है। यही भगवान श्री गणेश की प्राप्ति का शास्त्र-सम्मत दिव्य मार्ग है।
भजनों की मनभावन प्रस्तुति के साथ कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया। मंचासीन ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों ने अनेक सुन्दरतम भजनों का गायन कर संगत को झूमने पर विवश कर दिया। 1- श्वांसों का क्या भरोसा, रूक जाए चलते-चलते…… 2- तू जो चाहे तो पल में संभल जाऊं मैं, एक नज़र से ही तेरी निखर जाऊं मैं…….. 3- सद्गुरू एैसा खेल दिखाया, मोहे देख अचम्भा आया……4- तेरे द्वारे पे आए हम, आशुतोष मिटा दो गम…….. तथा 5- झर-झर बहती अंखियाँ मेरी, प्यार में तेरे रोए……. इत्यादि भजन प्रस्तुत किए गए। भजनों की गहन मिमंासा करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी ममता भारती जी के द्वारा किया गया। साध्वी जी ने बताया कि परमात्मा ने जीव को अनमोल श्वांसों का उपहार देकर इस धराधाम पर भेजा होता है, विडम्बना है कि मानव इन श्वांसों को जिन्हें कि उस ईश्वर के आदि नाम का स्मरण करते हुए लगाना था, वह मात्र संसार के निरर्थक क्रिया-कलापों में ही खर्च कर दिया करता है। खराब परिस्थिति आ जाने पर यदि ईश्वर का बोध होेने लगे तो क्या लाभ, पहले ही यदि ईश्वर के साथ जुड़े हों तो खराब परिस्थिति आए ही क्यों? ईश्वर कभी दुख में विचलित नहीं होने देता। इन श्वांसों को प्रभु को अर्पित कर देने पर ही इनका महत्व है। कहा भी गया- ‘‘श्वांस-श्वांस सुमिरो गोबिन्द, मन अन्तर की उतरे चिन्त’’। भगवान का नाम तो समस्त चिंताओं से मुक्ति दिलाने वाली चिंतामणि है। जब पूर्ण गुरू का ‘ब्रह्म्ज्ञान’ प्राप्त होता है तब यह शाश्वत् तकनीक समझ आती है कि आती-जाती श्वांसों को किस प्रकार चौबीसों घण्टे, आठों प्रहर, खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते उस परमात्मा के आदि नाम के साथ जोड़ा जा सकता है।
प्रसाद का वितरण करते हुए साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।
भवदीय- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *