देहरादून। कोरोना काल का सबसे ज्यादा असर जिन क्षेत्रों पर पड़ा है, उनमें पर्यटन भी शामिल है। बात उत्तराखंड की रकें तो यहां पर्यटन आमदनी का सबसे बड़ा जरिया है। अब कोरोना संक्रमण में कमी आने के बाद पर्यटन स्थलों की रौनक फिर लौटने लगी है। इस वीकेंड में नैनीताल-मसूरी सैलानियों से पैक रहे। आर्थिक दृष्टि से यह प्रदेश के लिए सुकून देने वाली खबर है। खासकर पर्यटन से व्यवसायियों के लिए। इस राहत के बीच चिंताजनक यह है कि कुछ सैनानी कोरोना से सुरक्षा को लेकर बेपरवाह दिख रहे हैं। रविवार को मसूरी के मालरोड पर अधिकतर सैलानी शारीरिक दूरी के नियम से दूरी बनाए दिखे। मास्क को लेकर भी यही हाल था। अनदेखी का यही आलम सिस्टम में भी है। कोई भी ऐसे पर्यटकों को टोकने की जहमत नहीं उठाता। हमें यह बात समझनी होगी कि अभी कोरोना को लेकर सतर्क रहने की उतनी ही जरूरत है, जितनी पहले थी।
स्कूल में बच्चे कितने सुरक्षित
बदलते दौर में स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा बड़ा मुद्दा है। इस मामले में उत्तराखंड के हालात बहुत ज्यादा अच्छे नहीं कहे जा सकते। यहां देहरादून और हरिद्वार के ही पचास फीसद से ज्यादा स्कलों में अग्निशमन और काल बटन जैसे उपकरण उपलब्ध नहीं हैं। अधिकांश स्कूलों में आपातकालीन निकास की व्यवस्था तक नहीं है। सरकारी स्कूलों के भवनों की हालत खराब है। खासकर पहाड़ में बच्चों के लिए स्कूल जाने के दौरान भूस्खलन का खतरा बना रहता है। उस पर सड़क हादसों और वन्य जीवों के हमले का भय अलग से रहता है। सरकार इस दिशा में गंभीर तो है, मगर धरातल पर परिणाम नजर नहीं आ रहे। कहीं नीति अड़ंगा बन रही है तो कहीं नीयत। अब हाईकोर्ट ने इस विषय पर सरकार का ध्यान आकृष्ट कराया है। अभिभावकों को भी नए मुख्यमंत्री से इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाने की उम्मीद है। आशा है स्थिति जल्द बदलेगी।
पहाड़ से ये परहेज क्यों
एक तरफ पहाड़ चिकित्सकों की कमी से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ चिकित्सक पहाड़ चढऩे के लिए तैयार नहीं हैं। हाल ही में स्वास्थ्य विभाग ने चयनित 403 चिकित्सकों को विभिन्न सरकारी अस्पतालों में तैनाती दी थी। मगर 132 ने कार्यभार ग्रहण नहीं किया। इनमें अधिकांश चिकित्सक वह हैं, जिन्हें दुर्गम में तैनाती मिली थी। चिकित्सक ही क्यों, कोई भी अधिकारी, कर्मचारी पहाड़ पर तैनाती के लिए राजी नहीं है। सवाल उठता है, ऐसा क्यों। बीते बीस वर्ष में उत्तराखंड तमाम बदलाव देख चुका है। सरकारें पंचवर्षीय योजनाओं की तरह बदलीं हैं। तो कई निजाम पहले निपट लिए। पहाड़ की आबोहवा भी बदल गई है और सूरत के साथ सीरत भी । अगर कुछ नहीं बदला तो वह है दुर्गम के दुर्गम होने का एहसास। अब प्रदेश को युवा मुख्यमंत्री का साथ मिला है तो फिर उम्मीद जगी है कि शायद पहाड़ की पथरीली राहों में विकास कुलांचे भर सके।
कब तक रहेगा साफ्ट कार्नर
हरदा यानी हरीश रावत। कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मुख्यमंत्री। राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं। विरोधियों को घेरने का शायद ही वह कोई मौका चूकते हों। रविवार को इधर पुष्कर सिंह धामी ने नए मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली उधर, हरदा ने मेनीफेस्टो का जिक्र कर याद दिला कि उनका यह सफर चुनौतियों से लकदक रहने वाला है। लगे हाथ शुभकामना देते हुए यह भी कह दिया कि नए मुख्यमंत्री के लिए उनके दिल में साफ्ट कार्नर है। वह चाहते हैं कि नए मुख्यमंत्री अपने युवा होने का फायदा उठाते हुए थोड़ी चमक दिखाएं। अब देखना यह है कि धामी के लिए हरदा के दिल में साफ्ट कार्नर कब तक बरकरार रहता है। एक बात साफ है कि हरीश रावत जितनी शिद्दत से राजनीतिक रिश्ते निभाते हैं, उतना ही सियासी दांवपेंचों के लिए जाने जाते हैं। मौका मिलने पर विपक्षी को घेरने में देर नहीं करते हैं।