देहरादून। आज एक बार फिर से दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में पूर्ण सदगुरूदेव की शास्त्र-सम्मत महान महिमा का दिव्य बखान किया गया। अवसर था रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों तथा मनभावन भजन-संर्कीतन के आयोजन का। असंख्य भक्त-श्रद्धालुगणों की उपस्थिति में सदगुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी ने गुरू की महिमा पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया कि पवित्र ग्रन्थों में, समस्त शास्त्रों में श्री गुरू चरणों की दिव्य महिमा का जगह-जगह गायन किया गया है। वास्तव में शास्त्रानुसार भगवान शिव अनेक प्रकार के प्रचलित गुरूओं को अपने मुखारबिन्द से वर्णित करते हुए सच्चे गुरू की महिमा का बखान करते हैं। वाचक, बोधक, निषिद्ध इत्यादि गुरूओं की श्रंखला में मात्र परम गुरू की ही शास्त्र-सम्मत मान्यता है। एैसे परम गुरू के चरणों में ही संत सहजोबाई अड़सठ तीर्थों को विद्यमान बताती हैं। एैसे ही पूर्ण गुरू की शास्त्रों में एक ही पहचान निर्धारित की गई है कि जब एैसे परम गुरू मिलेंगे तो सनातन पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ प्रदान करेंगे जिससे मनुष्य के भीतर विद्यमान ईश्वर का दर्शन होगा। सदगुरू जीव के अन्दर ही परमात्मा को प्रकट कर देंगे और गुरू कृपा से जीव को अपनी देह के भीतर ही भगवान का तात्विक स्वरूप दृष्टिगोचर हो जाएगा। वह दिव्य परम प्रकाश, वह ब्रह्मनाद, वह सरस अमृत तथा ईश्वर का सनातन आदिनाम अन्दर प्रत्यक्ष प्रकट हो जाता है। मनुष्य की शाश्वत भक्ति का यहीं से शुभारम्भ हो पाता है। एैसे गुरू की प्राप्ति हो जाने पर ही इन्सान की दौड़ समाप्त होकर उसमें ठहराव आ जाता है। गुरू के दिव्य मार्ग दर्शन में उसकी भक्ति यात्रा का आरम्भ होता है और उसे समस्त तीर्थ अपने परम गुरू के श्री चरणों में प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार गुरू आज्ञा में चलते हुए वह धर्म सम्मत जीवन जीते हुए परम लक्ष्य ‘भगवद प्राप्ति’ कर लेता है। साध्वी जी ने गुरू की भक्ति को पारिजात अर्थात कल्पवृक्ष की संज्ञा देते हुए कहा कि जो शिष्य पूर्ण निष्ठा और अनन्य भाव से पूरे गुरू की भक्ति करता है तो उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण कर देने वाला कल्पवृक्ष उसे सहज ही प्राप्त हो जाता है। कहा भी गया- ‘जो मांगे ठाकुर अपने से, सोई-सोई देवे…..।’ यह दीगर बात है कि भक्तिपथ पर चलते हुए शिष्य इतनी ऊँचाई को प्राप्त कर लेता है कि उसकी समस्त भौतिक इच्छाएं गौण हो जाती हैं और मात्र परमात्मा की, सदगुरूदेव की प्राप्ति की इच्छा ही शेष बचती है, बस! यही इच्छा उसे परमात्मा के धाम का अधिकारी बना देती है। गुरू की उच्चतम महिमा पर ही शास्त्र वचन करते हैं- ‘कर्ता करे न कर सके, गुरू करे सो होए, तीन लोक नवखण्ड में गुरू से बड़ा न कोय।’
ब्रह्मज्ञानी संगीतज्ञों द्वारा गाए गए मधुर भजनों पर संगत झूम-झूम उठी। रसपूर्ण भजनों की सटीक व्याख्या करते हुए मंच संचालन साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी के द्वारा किया गया।
सुश्री जाह्नवी भारती जी ने कहा कि महापुरूष भलीभांति जानते थे कि भक्ति के दुरूह मार्ग पर चल पाना जनमानस के लिए अत्यन्त कठिनाईयों से भरा होगा इसलिए उन्होंने सत्संग-प्रवचनों और भजन-संर्कीतन का प्रावधान रचा ताकि जनमानस सत्संग में आकर उन सुविचारों को ग्रहण करे जो उसे पग-पग पर भक्तिमार्ग में सहयोग करें। सत्संग महापुरूषों द्वारा भक्तों के लिए अनेक सम्भावनाओं के द्वार खोल दिया करता है, जिससे भक्त ज्ञान मार्ग पर, परम भक्ति के मार्ग पर आसानी से चल पाता है और अपने परम लक्ष्य को हासिल कर लेता है। साध्वी जी ने बताया कि प्रभु अत्यन्त सामर्थ्यवान होने के साथ-साथ समदर्शी भी होते हैं, वे सभी पर एक समान कृपा किया करते हैं। अहिल्या ने प्रभु श्री राम को पारस कहकर सम्बोधित किया और सच में जैसे ही प्रभु श्री राम के चरणों ने जड़वत अहिल्या का स्पर्श किया तो निष्प्राण अहिल्या परम चैतन्य अवस्था में परिवर्तित हो गई। दया सिन्धु परमात्मा तो भक्त हो या विभक्त सब पर अपनी कृपा वर्षा किया करते हैं। बारिश की नाईं भगवान स्थान या पात्रता का चयन किए बिना सब जगह एक जैसी बारिश किया करते हैं। फर्क मात्र इतना है कि जो बर्तन सीधे रखे होते हैं वे ही बारिश रूपी कृपा वर्षा को अपने भीतर समेट लेते हैं। लेकिन! जो व्यक्ति बरसती हुई बारिश में छतरी ताने रहता है वह इसमें भीगने के आनन्द से वंचित रह जाता है। ठीक एैसे मानव जगत में भी होता है, पूर्ण गुरू की ब्रह्मज्ञान रूपी कृपा वर्षा अनन्त रूप से बरसती है लेकिन लाभान्वित वही हो पाता है जिसके भीतर भीगने की प्यास है, गुरू के करूणा सिन्धु की रसबून्दों को ग्रहण करने की उत्कंठा है, भवपार होने की आस है, गुरू पर विश्वास है और जिसके भीतर अपने मानव जन्म को सार्थक कर लेने के उन्नत भाव हैं। शिष्य को सदैव अपने विश्वास को धैर्य का जामा पहनाकर दृढ़ता पूर्वक भक्ति मार्ग पर चलते जाना चाहिए। गुरू की आज्ञा को शिरोधार्य कर जब शिष्य संयम, तप, त्याग और बलिदान के दिव्य आभूषणों को धारण कर इस अद्वितीय भक्तिमार्ग पर चलता है तो गुरू की कृपा और प्रसन्नता दोनों को सहज़ ही पा लेता है। प्रार्थना भक्ति मार्ग को सरल बनाती है, प्रार्थना निष्काम भाव से और विश्वकल्याण की भावना से जब श्री गुरू के चरणों में की जाती है तो वह तुरन्त सुनी जाती है, गुरूदेव एैसी प्रार्थना को स्वीकारने में तनिक भी विलम्ब नहीं करते हैं। प्रार्थना भारी-भरकम शब्दों की मोहताज़ नहीं होती, प्रार्थना शब्दों का तिलस्म न होकर हृदय के उन्नत भावों और अनन्त प्रेम की रसधार से परिपूर्ण होनी चाहिए, यही प्रार्थना की सर्वमान्य शर्त है। तभी तो कहा भी गया- चींटी के पग नूपुर बाजे, सो भी साहिब सुनता है।
भवदीय- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून