नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बीते दिन एक अहम फैसला सुनाते हुए तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ता लेने के हक की बात कही। कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम महिलाएं भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है।
जस्टिम बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की बेंच ने ये फैसला सुनाया है। दोनों जजों ने फैसला तो अलग-अलग सुनाया, लेकिन दोनों की राय एक ही थी। दोनों ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी गुजारा भत्ता पाने के लिए पति के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 125 के तहत केस कर सकती हैं।
सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला ठीक वैसा ही है, जैसा कि 23 अप्रैल 1985 में शाहबानो मामले में दिया गया था। आइए जानें, आखिर क्या है शाहबानो मामला और क्यों राजीव गांधी ने पलट दिया था फैसला।
क्या है शाहबानो मामला
दरअसल, 1985 में इंदौर की एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो ने गुजारा भत्ता हासिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो के पक्ष में फैसला सुनाते हुए उनके पति मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया
कट्टरपंथियों के विरोध के आगे झुके राजीव गांधी
हालांकि, मुस्लिम समुदाय में इस फैसले का विरोध शुरू हो गया। राजीव गांधी सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के आगे झुक गई और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून, 1986 लेकर आई और तुष्टिकरण के लिए कोर्ट के फैसले को पलट दिया। आइये जानते हैं, अन्य अहम फैसलों के बारे में जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को मजबूती दी।
1963 का गुलबाई बनाम नवरोजी मामला
गुलबाई मामला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से जुड़ा था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम ला के तहत शादी की वैधता के लिए दिशानिर्देश तय किए थे। इस दिशा निर्देश में वैध निकाह समझौते के लिए जरूरी चीजों पर जोर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए वैध शादी के लिए जरूरी चीजों को स्पष्ट किया था, जिससे अवैध या बल पूर्वक शादी करके मुस्लिम महिलाओं का शोषण न किया जा सके।
1997 का नूर सबा खातून मामला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि मुस्लिम महिला मुस्लिम पर्सनल ला शरिया एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए दावा कर सकती है। इस फैसले में मुस्लिम महिलाओं के संपत्ति के अधिकार को स्वीकार किया गया और इससे उनको आर्थिक तौर पर मजबूती मिली
2001 का डेनियल लतीफी बनान
राजीव गांधी सरकार द्वारा लाए गए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण ) कानून, 1986 की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। डेनियल लतीफी वकील थे। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में शाहबानो का प्रतिनिधित्व किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 1986 के कानून की व्याख्या इस तरह से की जिससे की अधिनियम में लागू की गई रोक एक तरह से अप्रभावी हो गई। अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि महिलाओं के अधिकार इद्दत की अवधि के आगे भी रहते हैं। कोर्ट के इस फैसले ने सुनिश्चित किया कि मुस्लिम महिलाओं को गरिमा के साथ अपना जीवन जीने के लिए उचित मदद मिले।
2009 का मौलाना अब्दुल कादिर मदनी मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 2009 में जोर देकर कहा था कि धर्म का पालन करने के अधिकार में दूसरों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने का अधिकार शामिल नहीं है। यह बात खास कर लैंगिक समानता के परिप्रेक्ष्य में कही गई थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में इस बात की पुष्टि की गई थी कि पर्सनल ला संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप होने चाहिए।
2014 में शमीम बानो बनाम असरफ खान
2014 में सुप्रीम कोर्ट ने शमीम बानो नाम असरफ खान मामले में कहा था कि मुस्लिम महिला तलाक के बाद भी अपने पति से भुजारा भत्ता पाने की हकदार है और मजिस्ट्रेट की अदालत के समक्ष इसके लिए आवेदन कर सकती है। फैसले में इस बात पर जोर दिया गया था कि मुस्लिम पति की जिम्मेदारी हैं कि वह तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए गुजारा भत्ता सहित उचित व्यवस्था करे और यह बात इद्दत की अवधि से आगे के लिए भी लागू होती है।
2017 में शायरा बानो मामला
ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को असंवैधानिक और अवैध करार दिया था। कोर्ट ने कहा कि तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।