भगवान की ‘जय’ में ही छुपी होती है भक्त की ‘विजय’- -साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी

देहरादून। भक्तों द्वारा सदा भगवान की जय-जयकार की जाती है। ईश्वर की इस जय को करने का आखिर अभिप्राय क्या है? मनुष्य यदि देखे तो ईश्वर तो जय-पराजय से परे एक अविनाशी शक्ति हैं, फिर इंसान हर जगह उनकी जय क्यों किया करता है? वास्तव में मनुष्य अनेक संघर्षों, अनेक विपदाओं तथा अनेकानेक दुखों में आंतरिक तथा बाहरी स्तर पर एक एैसा युद्ध लड़ने पर विवश है जो युद्ध अपने ही विरूद्ध है। एैसे में वह उस परमात्म शक्ति का सहारा लेकर उसके जयघोष लगाता है जिससे कि उसके भीतर का आत्मबल विकसित होकर उसकी जय का ही आधार बन जाता है। परमात्मा की जय में ही मनुष्य की विजय सुनिश्चित हुआ करती है। इसके विपरीत जब भी किसी ने अपनी जय करवानी चाही चाहे वो रावण हो, चाहे वो कंस हो या फिर हिरण्यकश्यप ही हो, एैसा करने पर यह सब कथित महाबली पतन को प्राप्त हो गए। दूसरी ओर लंका विजय के समय वानर सेना ने जब जय श्री राम का उद्घोष कर सेतुबंध पर कार्य किया तो पत्थर भी राम नाम की जय से पानी पर तैरने लगे और विशाल सेतु का निर्माण होता चला गया। मन मनुष्य का एैसा अदृश्य शत्रु है, जो कि अत्यन्त सूक्ष्म है, यह स्वछन्द रूप से ही विचरण करना चाहता है। इस मन को कोई भी बंधन पसंद नहीं, इसकी दिशा निम्न है। जैसे पानी का बहाव सदा नीचे की ओर रहता है और यदि इसे ऊपर की दिशा में परिवर्तित करना हो तो इसके लिए कड़े संघर्ष की आवश्यकता हुआ करती है। मन की चंचलता पर ही भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को इसे वश में करने का कारगर उपाय बताते हुए कहा है कि निरन्तर अभ्यास और वैराग्य द्वारा ही इसे साधा जा सकता है। फिर यह ईश्वर में ही रम जाता है और कहीं भी भटकने नहीं पाता है। पूर्ण गुरू द्वारा प्रदत्त पावन ‘ब्रह्मज्ञान’ वह दिव्य सनातन तकनीक है जिससे मन की समस्त चंचलता पर अंकुश लगाया जा सकता है। जिसके जीवन मेें पूर्ण सद्गुरू द्वारा प्रदत्त ब्रह्मज्ञान आ गया फिर उसकी भक्ति अपने चर्मोंत्कर्ष को प्राप्त कर जीवन के परम लक्ष्य को हासिल कर लेती है। यह आवश्यक है कि गुरू की आज्ञा में चलना ही इसमें मुख्य भूमिका निभाती है। वास्तव में भगवान की जय मंे ही छुपी हुई होती है भक्त की विजय।
उपरोक्त सद्विचारों को आज साप्ताहिक रविवारीय सत्संग-प्रवचनों के मध्य सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी के द्वारा उपस्थित संगत को प्रदान किए गए।
अनेक मनभावन भजनों की प्रस्तुति के बीच मंच संचालन का कार्य साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया। साध्वी जी ने बताया कि गुरू साहिबानों का दिव्य कथन है-

भई प्रापत मानुख देहुरिया, गोबिन्द मिलन की ऐहु तेरी बरिया, अवर काज तेरे किते न काम, मिल साध संगत भज केवल नाम।

एक होता है ईश्वर को देख लेना और एक होता है उसी में मिल जाना, इकमिक हो जाना। साधु की संगत के उपरान्त ही गोबिन्द (परमात्मा) के साथ मेल होना सम्भव हो पाता है। साधु भी कोई साधारण नहीं बल्कि शास्त्र-सम्मत वह परम गुरू होने चाहिए जो कि मनुष्य के भीतर ही परमात्मा को दिखा भी दें और दर्शन के उपरान्त उनकी प्राप्ति करवा देने की अद्वितीय क्षमता भी वे रखते हों। पूर्ण गुरू का पावन ब्रह्मज्ञान वह सनातन-शाश्वत तकनीक है जिससे यह दिव्य मिलन सम्भव हो पाता है।

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