भीतर से ‘आत्मा’ को भी रंग दें, तभी होली सार्थक है- साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती जी

दिव्य होली के मजीठ रंगों में रंगे भक्त-साधक।
(संस्थान ने आज मनाया ‘होली महोत्सव’ कार्यक्रम)
देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर, देहरादून स्थित आश्रम सभागार मंे आज रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-पव्रचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम के मध्य संस्थान द्वारा ‘होली महोत्सव’ कार्यक्रम के द्वारा तन-मन-आत्मा को रंग देने वाला दिव्य कार्यक्रम आयोजित किया गया।
कार्यक्रम में मर्मस्पर्शी प्रवचनों को प्रस्तुत करते हुए संस्थान की संयोजक-प्रचारक साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती जी ने उपस्थित भक्तजनों को होली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं देते हुए बताया कि रंगों का यह त्यौहार मानव समाज़ को एकता के रंग में, प्रेम के रंग में, रंग देने का संदेश दिया करता है। बाहर से ही नहीं अपितु भीतर से, आत्मिक रूप से जब रंग की फुहारें मानवता को रंगती हैं, तब! इस पावन पर्व का महत्व अत्यधिक बढ़ जाता है। भक्ति का रंग जब भक्तों पर चढ़ता है, तब! वह अपने इस दिव्य रंग में समूचे जगत को ही सराबोर कर देना चाहता है। महापुरूषों ने होली का प्रचलन ही इसलिए किया था ताकि आत्मा उस परमात्मा के ‘गूढ़’ रंग में रंगकर यह उद्घोष करे- मैं तो अब ईश्वर की हो,ली। एक भक्त-साधक अपने सद्गुरूदेव के भक्ति रस में स्वयं को डूबोकर जब उनके दिव्य रंग को आत्मसात करता है तभी उसकी होली सम्पन्न हुआ करती है। विदुषी जी ने कहा कि विडम्बना की बात है कि आज कतिपय लोगों ने होली के पावन स्वरूप को ही बिगाड़ कर रख दिया है। एक-दूसरे पर विषैले रंगों की बौछार और अनेक प्रकार के नशे। होली की आड़ में अपनी दुश्मनी को निकालना और कई प्रकार के नशे कर इस पावन दिवस की गरिमा को भंग करना, यह अच्छी बात तो नहीं है। श्री गुरूनानक साहिब जी ने नशे के ऊपर कितना सुन्दर कहा है- ‘नशा भंग शराब का, उतर जाए प्रभात, नाम ख़ुमारी नानका, चढ़ी रहे दिन-रात।’ नशा ही करना है तो सबके मंगल का नशा किया जाए, ईश्वर के शाश्वत् नाम का नशा किया जाए, सम्पूर्ण विश्व की शांति और सौहार्द का नशा किया जाए। प्रह्लाद जैसा समर्पण और शबरी जैसा सब्र एक भक्त के अमूल्य आभूषण ही तो हुआ करते हैं। भक्ति का मार्ग यूं तो एक विकट मार्ग है, लेकिन यदि! शिष्य पूर्ण रूप से अपने गुरूदेव की आज्ञा में चल रहा है और सावधानी पूर्वक स्वयं के क्रिया-कलापों पर दृष्टि रखते हुए चलता है तो उसके लिए यही कठिन मार्ग उल्लास और आनन्द का मार्ग बन जाया करता है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी, यह बात सिर्फ पहाड़ों पर लगे खतरनाक मोड़ों के लिए ही नहीं है बल्कि यह एक साधना पथ के साधक के लिए भी मुफीद बात है। जीवन में प्रयास हो कि ‘भक्ति का रंग’ एैसा चढ़े कि फिर कभी उतर ही न पाए। भक्ति मार्ग में गुरू द्वारा ली जाने वाली परीक्षाएं साधक को कुछ बना देने के साथ-साथ उसकी प्रगति का ‘रिपोर्ट कार्ड’ ही हुआ करता है। इससे घबराने की आवश्यकता नहीं है। एक शिष्य साधक जब गुरू चरणों की ओर उनकी आज्ञा में चलता है तो उसके मुख से यही उच्चारित होता है- ‘डूबने का डर, भला! मुझे हो तो क्यों हो?, मैं तेरा, दरिया तेरा, कश्ती तेरी, साहिल तेरा।’ सब कुछ तो दाता तेरा ही है, फिर मुझे भला! कैसा डर, कैसी फिक्र। हे गुरूवर मुझे तो यही वर दो कि मैं आपकी आज्ञा में सदा चलता रहूं और भक्ति मार्ग की सारी पीड़ा, समस्त संघर्ष सहता रहूं। एक साधक ही विरह की अग्नि में जब स्वयं को तपाता है तभी उसका अपने प्रियतम (सद्गुरूदेव) के साथ आनन्द कारज़ हो पाता है।
कार्यक्रम में होली को इंगित करते अनेक सुन्दरतम भजनों की प्रस्तुति दी गई। सारगर्भित भजनों में 1- हो, आशु मुझको भी रंग दे अपने रंग में, सुमिरन की मैं ओढ़ चुनरिया तुमको रिझाऊं गुरू प्रेम सांवरिया… 2- मेरी चुनरी में पड़ गई दाग़ री….. 3- अपने ही में मुझे रंग दे….. 4- आज रंग दे री मां, रंग दे री मां…… 5- तेरी एक नज़र ने हमें कर्ज़दार कर दिया, दाग़दार था, रंगदार कर दिया….. 6- मेरा मुर्शिद खेले होली, मेरा मुर्शिद खेले होली…… तथा 7- रंगरेज़ मेरे-रंगरेज़ मेरे, मेरे को गूढ़ रंग में रंग दे…… इत्यादि भजनों से संगत आनन्द विभोर होकर नाच उठी।
भजनों की सारगर्भित व्याख्या साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी तथा साध्वी विदुषी भक्तिप्रभा भारती जी ने संयुक्त रूप से करते हुए मंच का संचालन भी किया। प्रह्लाद के जीवन का सारगर्भित प्रसंग सुनाते हुए सुभाषा भारती जी ने कहा कि कण-कण में स्थित परमात्मा की पहचान सतयुग में खम्बे से प्रकट हुए नरसिंह भगवान के रूप में दृष्टिगोचर होती है। प्रह्लाद की माता कयाधु ने जब प्रह्लाद पर होने वाले अत्याचारों से दुखी होकर प्रह्लाद को कहा कि तुम अपने श्री हरि को छोड़ क्यों नहीं देते? तब प्रह्लाद बोले, माता अब मैं उस स्थिति में पहुंच गया हूं कि मैंने श्री हरि को नहीं बल्कि श्री हरि ने ही मुझे थामा हुआ है, अब बताओ भला! मेरे छोड़ने न छोड़ने की बात कहां पैदा होती है? साध्वी जी ने प्रभु श्री राम द्वारा परिवार सहित होली खेलने का प्रसंग सुना भक्तजनों को भाव-विभोर कर दिया।
साध्वी भक्तिप्रभा भारती जी ने संगत को बताया कि भक्त सदा अपने भगवान से स्वयं को उनके ही दिव्य रंग में रंग देने की प्रार्थना किया करता है। परमात्मा का ही रंग एैसा रंग है जो एक बार चढ़ गया तो फिर कभी उतर नहीं पाता है। भक्त परमात्मा के अनेक रंगों जैसे, वीरता का रंग, दया का रंग, क्षमा का रंग, शील (उज्जवल चरित्र) का रंग, धैर्य और संतोष का रंग मांगता है। सच्चे हृदय से मांगे गए इन रंगों को परमात्मा अपने भक्त को सहर्ष प्रदान कर दिया करते हैं। तप, त्याग और बलिदान एक भक्त के एैसे रंग है जो प्रत्येक दिवस ही सम्पन्न होने वाली होली में उसे सदा रंगा करते हैं। एैसे भक्त के सानिध्य में आने वाले प्रत्येक प्राणी भी उसी के रंग में रंग जाया करते हैं। साध्वी जी ने अनेक सारगर्भित प्रसंग सुनाकर होली की महत्वता पर प्रकाश डाला।
प्रसाद का वितरण कर होली महोत्सव के इस यादगार कार्यक्रम को विराम दिया गया।

 

 

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