भवसागर से पार उतरना है तो चाहिए, ‘पूर्ण गुरू’ का ‘‘ब्रह्मज्ञान’’- साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी

देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर, देहरादून स्थित आश्रम सभागार मंे आज रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-पव्रचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का आयोजन किया गया। संस्थान के संगीतज्ञों द्वारा भावपूर्ण भजनों की प्रस्तुति देते हुए कार्यक्रम का शुभारम्भ किया गया। भजनों में- 1- जीवन के दाता, श्वांसों के स्वामी, ये नइया की पतवार, तुमको है अर्पण…. 2- कोटि नमन श्रीगुरू के चरण में, वही पिता और वही माता, भाग्य बड़े मैं सद्गुरू पायो…. 3- ले चल परली पार, नइया ले चल परली पार, जहां विराजे राधा रानी, अलबेली सरकार…. 4- भक्ति से भरा जीवन, दातार हमें देना…. 5- और कुछ भी न मैं चाहूं, यही चाहत है मन में, मेरे आशु तुम्हें मैं पाऊं, यही चाहत है मन में….. तथा मनभावन प्रार्थना रूपी भजन, जिसने संगत को भाव-विभोर कर दिया 6- कभी तेरी चौखट न छोड़ंेगे हम, चलें लाख दुख की आंधी, या तूफाने ग़म….. इत्यादि रसपूर्ण प्रस्तुति से खूब समां बांधा गया।
भजनों की सारगर्भित मिमांसा करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी ममता भारती जी के द्वारा किया गया। सुश्री भारती जी ने व्याख्या करते हुए बताया कि जिस प्रकार एक बीज को पौधा बनने में तथा उस पौधे को पेड़ बनने में एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है तब उसे आधार चाहिए होता है धरती, आकाश, जल, खाद, हवा, सूर्य का प्रकाश इत्यादि का, तभी! एक दिवस वह बीज विकसित होकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत हो, संसार को शीतल छाया और मधुर फल देने में सक्षम हुआ करता है। ठीक इसी प्रकार एक जीवात्मा जन्म लेने के पश्चात जब ज्ञान-सूर्य रूपी सद्गुरू की शरणागति को प्राप्त कर उनकी आज्ञा में चलने का धरती सदृश दृढ़ संकल्प, भक्तिमार्ग में गुरू कृपा रूपी खाद, हवा के वेग से निरंतर चलते ही जाने की ललक और अपने आकाश शरीखे मस्तिष्क में सद्विचारों की अनन्त श्रंखला को जन्म देता है तब उस नन्हें से शिष्य रूपी पौधे को सद्गुरूदेव विशाल आकार देकर उसकी घनी छाया में दुनिया को शांति और विश्रान्ति प्रदान करते हुए मधुर फलों से उनकी क्षुधा शांत करने का महती कार्य किया करते हैं। साध्वी जी ने कहा कि जन्मों-जन्मों का बोझ ढो रही अंर्तात्मा जब संसार के भीतर आती है तो इस बोझ को ढोने में कोई उसका सहभागी नहीं बन पाता। मन के अनन्त विचारों का बोझ, अनेक प्रकार के विकारों-वासनाओं का बोझ जैसे कि इन्हें ढोते रहना ही उसकी नियति बन चुकी होती है। अब जो किया है तो, भुगतना तो पड़ेगा ही! तभी, उसके जीवन में किये गए पुण्यों का उदय होता है और ‘बहार’ बनकर जैसे कि उसके जीवन में सद्गुरूदेव का पदार्पण हो जाता है और फिर! उसकी मरूस्थल बनी ज़िन्दगी हरियाली से परिपूर्ण एक मधुबन सरीखी हो जाया करती है उसके जन्मों-जन्मांे का बोझ उतारकर पूर्ण गुरू उसे हल्का बना देते हैं उसकी आत्मा जो कि मन के द्वारा किए गए कुकृत्यों के बोझ से त्रस्त होकर कराह रही थी, अब! अपार सुख के सागर में गोते लगाने लगती है। अधोगति की ओर अग्रसर वह इन्सान अब सद्गति की दिशा में अपनी यात्रा प्रारम्भ करने लगता है। गुरूदेव पर सारा भार छोड़कर वह जब अपने गुरू का ही चिंतन करने लगता है तब! सद्गुरूदेव उसकी समस्त चिंताओं का भार भी स्वयं वहन करने लगते हैं। जिनके जीवन में सद्गुरू का आगमन हो गया वह भाग्यशाली नहीं बल्कि अति सौभाग्यशाली होते हैं। संसार तो नाना प्रकार से ईश्वर को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयास करता रहता है, अथक प्रयत्न करने के बाद भी ईश्वर मिलना तो दूर उनकी एक झलक भी उसके लिए दुर्लभ हो जाती है। जन्मों-जन्मों के कर्म-संस्कारों को समाप्त किए बिना, अपने मन-वचन-कर्म को शुद्ध-परिशुद्ध किए बिना, अपने को पूर्ण रूपेण विषय-विकारों और दुष्प्रवृत्तियों से मुक्ति दिए बिना ईश्वर का मिलना एक असम्भव बात है। हाँ! एकमात्र तरीका है जिसकी तरफ हमारे समस्त शास्त्र-ग्रन्थ इशारा करते हैं कि अविलम्ब खोज करो, किसी पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ सन्त-सद्गुरू की, जो स्वयं ईश्वर में इकमिक हों और अपनी शरणागत को भी ईश्वर में समाहित कर देने की विलक्षण क्षमता रखते हों। तभी जीव का कल्याण है, ईश्वर का दर्शन है, शाश्वत भक्ति का आगाज़ है और तभी मुक्ति-मोक्ष भी सम्भव है। यहां पर एक बात बड़ी सारगर्भित है कि सद्गुरूदेव अपनी शरण में आने वाले शिष्य के न तो कोेई अवगुण ही देखते हैं और न ही उसके द्वारा पूर्व में किए गए अपराधों पर ही दृष्टि रखते हैं। गुरूदेव तो जैसा भी शिष्य हो उसे वैसा ही अपना लेते हैं और फिर! पावन ब्रह्मज्ञान की सनातन तकनीक के द्वारा उसके समस्त अवगुणों-बुराईयों-विकारों का समूल नाश कर उसे ईश्वर की दिव्य गोद में बैठाने वाली शुद्धता-पवित्रता प्रदान कर दिया करते हैं। साध्वी जी ने कहा कि यह संसार मायावी आवरण से ढका हुआ है। जीवात्मा और परमात्मा के बीच यही माया का आवरण दोनों को मिलने नहीं देता। सद्गुरूदेव अपनी कृपा के द्वारा इस आवरण का पर्दाफ़ाश कर जीव और ईश्वर को एक कर देते हैं। यही सद्गुरू के पावन ब्रह्मज्ञान का कमाल है और यही उनकी अहैतुकी कृपा है।
आज के सत्संग-प्रवचनों को प्रस्तुत करते हुए ‘सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी’ की शिष्य तथा संस्थान की प्रचारिका साध्वी सुभाषा भारती जी ने संगत को बताया कि मनुष्य जीवन के भीतर एक महान अवसर परमात्मा प्रत्येक जीव को प्रदान करते हैं, परम भक्ति से भरा जीवन जीने का एक सुअवसर अवश्य प्रदान किया करते हैं। वास्तव में ही यदि मनुष्य परम भक्ति का शाश्वत मार्ग पाने की इच्छा रखता हो तो उसे मार्ग मिल ही जाया करता है क्योंकि! पूर्ण गुरू एैसी भक्तात्माओं को स्वयं खोज़ लिया करते हैं, जिनमें ईश्वर से मिलने की, उनका दर्शन करने की और उन्हें प्राप्त करने की ‘प्यास’ विद्यमान होती है। भगवान एक जादूगर की मानिन्द ही तो हैं और यह सारा संसार, इस संसार की माया, यह उनका जादू नहीं तो और क्या है? जैसे एक संसार का जादूगर अपने जादू से कुछ चीजो़ं को जीवंत कर देता है और जो उसके जादू में फंस जाता है वह भ्रमित ही होता है परन्तु! जो विवेकवान व्यक्ति उसके जादू को यथार्थ नहीं बल्कि नज़रों का धोखा समझ लेता है वह भ्रमित नहीं हुआ करता है इसी प्रकार एक ब्रह्मज्ञानी जब गुरू कृपा से उस परमात्मा रूपी जादूगर को भलीभांति जान लेता है तब वह भी भ्रम का शिकार कभी नहीं होता। माया रूपी जादू से सद्गुरूदेव उसकी पल-पल रक्षा किया करते हैं। साध्वी जी ने बताया कि यह संसार हर उस व्यक्ति के लिए एक भ्रमजाल की नाईं है जिसने मायापति को छोड़ माया का पल्ला थाम लिया। उन्होंने दोहे के माध्यम से बताया कि- ‘‘दुनिया ये चमकीली रेती, दूर से लागे पानी, प्यास बुझाने पास गए तो, असली सूरत जानी।’’ साध्वी जी ने संसार की तुलना सेमल के पुष्प के साथ की जिसमंे न तो सुगंधि है, न रस है ओर न ही रूप है, केवल सूखी हुई रूई के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास जी के साथ-साथ आदिगुरू शंकराचार्य जी और सिकन्दर के प्रेरणाप्रद दृष्टांत भी संगत के समक्ष रखे और उनका मार्गदर्शन किया।
कार्यक्रम में देहरादून आश्रम की संयोजक विदुषी अरूणिमा भारती जी ने अपने विचार प्रवाह में भक्तजनों को बताया कि सद्गुरू की संगत जीव को भवसागर से तार देने की अद्वितीय क्षमता रखती है। संत का संग दुर्लभ बताया गया है। कबीर साहब तो कहते हैं- ‘‘एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध, कबीरा संगत साधु की, कटहिं कोटि अपराध’’ पूर्ण गुरू का सत्संग एक ‘कल्पवृक्ष’ की मानिन्द होता है जिसमें आकर बैठने से, एकाग्रता पूर्वक श्रवण करने से मनुष्य का कायाकल्प निश्चित है। मन लगे न लगे लेकिन सत्संग के पावन वातावरण में आकर मानव अपनी आत्मा को वह सुख प्रदान करता है जो संसार में अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं है। उन्होंने एक प्ररेणादायक दृष्टांत भी भक्तजनों के समक्ष उदधृत किया- एक वृद्ध सज्जन नित्य सत्संग आया करते थे और ध्यान से सत्संग को ग्रहण किया गरते थे लेकिन वे कानों से सुन नहीं पाते थे, यह बात सत्संग करने वाले स्वामी तथा उनके शिष्य, सभी जानते थे। अचरज की बात तो यह थी कि जब भी सत्संग में कोई भावुक प्रसंग आता और आस-पास के लोगों को वे अश्रु बहाते देखते तो स्वयं भी सिसकने लगते। अन्य अवसर पर जब वे वक्ता के द्वारा किसी हास्य प्रसंग सुनाने पर लोगों को हँसते हुए देखते तो स्वयं भी मुस्कुराने लगते। निरंतर उनकी एैसी अवस्था को देख उन स्वामी के शिष्य से जब रहा नहीं गया तो वे एक दिवस! उनसे लिखित रूप से पूछ ही बैठे कि बाबा जी आप जब सुन पाने में ही असमर्थ हैं तब सत्संग का लाभ किस प्रकार प्राप्त कर पाते हैं? इस पर उन सज्जन ने भी लिखकर उन्हें जवाब दिया कि यहां पर सत्संग की जो एक सकारात्मक उर्ज़ा बहती है उससे मेरी आत्मा आह्लादित होकर मुझे आनन्द प्रदान करती है। फिर! दूसरी बात यह है कि मुझे सत्संग में छोड़ने के लिए मेरा पुत्र आता है, जो कि पहले-पहल तो मुझे आश्रम के बाहर ही छोड़ दिया करता था, लेकिन! कुछ समय से वह भी अन्दर आकर सत्संग को श्रवण किया करता है, उसकी देखादेखी उसकी पत्नी अर्थात मेरी बहू भी अब सत्संग में आती है और साथ ही अब तो बच्चे भी इस पवित्र वातावरण में आकर शुभ संस्कारों से युक्त होते जा रहे हैं। यह है सत्संग की महान महिमा। बच्चे भले ही अबोध हुआ करते हैं लेकिन ईश्वर का बोध उन्हें बड़ों से भी अधिक हो जाता है क्यों कि एक दिवस! सत्संग के महौल में एक बच्चा अपनी माता से पूछ बैठता है- ‘मम्मी, यहां पर इतनी शांति क्यों है?’ अब बच्चा भला! क्या जाने शांति क्या? और अशान्ति क्या? यह वातावरण की दिव्यता ही तो हुआ करती है। विदुषी जी ने साधक-शिष्यों का आह्वान करते हुए कहा कि जीवन में सुख-दुख का चक्र तो चलता ही रहता है। जीवन जीने की कला आनी चाहिए, फिर न हताशा और न निराशा, बस! आनन्द ही आनन्द। सद्गुरूदेव जीवन जीने की कला ही तो सीखाते हैं। संघर्ष ही तो जीवन है। यह संघर्ष मनुष्य को गढ़ता भी है और कुछ बना भी देता है। उन्होंने श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी और उनके शिष्य तथा उसकी पत्नी का दृष्टांत जब सुनाया तो गुरू की महिमा सुन संगत आत्म-विभोर हो गई। गुरू दाताओं के भी दाता होते हैं, शिष्य को विश्वास की पात्रता विकसित करनी होती है। एैसे दाता से ही कुछ मांगा भी जाता है और मिलता भी है। यदि नहीं मिल रहा तो समझना चाहिए कि इसी में शिष्य का भला है। गुरू कभी भी अपने शिष्य को वह नहीं देता जिसमें उसका अहित हो इसलिए शिष्य को भी बिना कोई मांग किए एक ही मांग करनी चाहिए कि हे गुरूदेव हमें भक्ति की एैसी शक्ति दो कि हम इस विकट भक्ति मार्ग में आपकी पूर्णतः और अक्षरशः आज्ञा में चल पाएं और सबसे बड़ी दात हमें यह दीजिए कि अपने श्री चरण कमल हमारी झोली में डाल दीजिए। आप से कम हमें कुछ भी मंजूर नहीं है, हम कभी विचलित न हों, दृढ़ विश्वास के साथ चलते ही रहंे और शिव संकल्पित हो, सकारात्मक दृष्टिकोण से इस सम्पूर्ण जगत के परम कल्याण में अपना सर्वस्व अर्पित कर पाएं। संसार में रहकर ईश्वर के साथ जुड़ाव ठीक इस प्रकार हो- ‘‘न जग बिसरो, न हरि को भूल जाओ ज़िन्दगानी में, दुनिया में एैसे रहो, जैसे कमल रहता है पानी में।’’
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।

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