देहरादून। संसार से मनुष्य कुछ भी छुपा सकता है, अपनी चालाकी से अपने मन के भीतर की स्थिति का हाल गलत बयान कर सकता है लेकिन पूर्ण सद्गुरूदेव जिन्हंे कि शास्त्रों में सूक्ष्म ब्रह्म का ही स्थूल स्वरूप कहकर अभिवंदित किया है, एैसे गुरू से कुछ भी छिपना असम्भव है। शास्त्र कहता है- ‘गुरू परमेश्वर एको जाण…….’ पूर्ण सद्गुरू सकल ब्रह्माण्ड को इस प्रकार देख लिया करते हैं जिस प्रकार मनुष्य अपनी हथेली में स्थित लकीरों को देख लेता है। यह मनुष्य की विडम्बना है कि वह गुरू की शरण में आने के बाद भी अपने फितरती हथकण्डों से बाज नहीं आता है और गुरू के समक्ष भी अपनी चालबाज़ियों की चालें चलता रहता है। कहा भी गया- ‘तू सबसे छुपा ले एै इन्सान, उससे छुपा न पाएगा, वो कण-कण से है देख रहा, तेरा दोष प्रकट हो जाएगा।’ सूर्पणखा ने अपनी आसुरी शक्ल को मायावी रूप से भले ही ढ़क लिया और सोचा कि मैं श्रीराम को रिझा लूँगी, लेकिन! वह नहीं जानती थी कि प्रभु श्रीराम कि दिव्य दृष्टि पारदर्शी है जो कि मन तथा विचारों को पढ़ लेती है। आसुरी रूप अधिक टिक नहीं पाया और आसुरी भेष और राक्षसी प्रवृत्ति उजाग़र हो गई। प्रभु को न तो रिझा पाई और न ही प्राप्त कर पाई। इसी प्रकार आज भी साधक-शिष्य अपने सद्गुरूदेव को प्राप्त करना चाहते हैं। शिष्यों को कभी भी सूर्पणखा वाली गलती नहीं करनी चाहिए। अपने विकारों, अपनी बुराईयों पर आवरण डाल अपने गुरू को प्रसन्न करने का प्रयास कभी भी सफल नहीं हो सकता। गुरू की दिव्य दृष्टि भी पारदर्शी हुआ करती है उनसे हमारा बनावटी रूप कभी भी छुप नहीं सकता है। पूर्ण गुरू की पूर्ण शरणागत हो जाने के उपरान्त फिर एक शिष्य का अपने पास कुछ भी नहीं बचता है, सब गुरू का हो जाया करता है। एैसी अवस्था हो जाने पर फिर शिष्य जो भी कहता है वह गुरू के ही ‘ब्रह्मवाक्य’ होते हैं, शिष्य जो भी करता है गुरू की करनी बन जाती है, शिष्य का उठना-बैठना, चलना-फिरना, खाना-पीना, सोना-जागना सब कुछ गुरूमय होकर भक्ति की श्रेणी में ही आ जाता है। शिष्य की दृष्टि दोषरहित हो जाती है, सम्यक दृष्टिकोण बन जाता है, मन-वचन-कर्म से शिष्य पूर्णतः निर्दोष हो अपने गुरू के लक्ष्य मंे ही समाहित हो जाया करता है। एैसे शिष्य को सद्गुरूदेव अपना ही स्वरूप प्रदान कर उसे ‘दिव्य’ बना दिया करते हैं, इसे ही शास्त्र स्थितप्रज्ञ कहा करते हैं। भक्ति मार्ग मंे सतर्क होकर निष्काम पुरूषार्थ के द्वारा गुरू की कृपा को प्राप्त किया जा सकता है, गुरू को पुरूषार्थ का सशक्त आधार चाहिए। शिष्य को कर्मशील होकर गुरू की पूर्ण आज्ञा में चलने पर ही उसे महाभारत के अर्जुन जैसी ‘विजय श्री’ प्राप्त हो पाती है, आवश्यकता इतनी भर है कि संसार में अर्जुन की भांति श्रीकृष्ण सदृश सद्गुरू का चयन किया जाए जो उन्हीं की भांति अपना विराट स्वरूप (ब्रह्मज्ञान) प्रदान कर शिष्य रूपी अर्जुन का मोह भंग कर सकंे।
उपरोक्त सद्विचार आज दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की निरंजनपुर शाखा के आश्रम सभागार में रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम के दौरान सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा संस्थान की प्रचारिका साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी ने प्रकट किए।
कार्यक्रम का मंचासीन ब्रह्मज्ञानी संगीतज्ञों ने अनेक सुमधुर भजनों की प्रस्तुति के साथ शुभारम्भ किया।
1- अपनी हर अवस्था में, कभी धैर्य मत खोना, गुरूवर सुनते हैं…… 2- स्वीकार करो श्रद्धा के पुष्प, हे गुरूवर दयानिधान-गुरूवर दयानिधान, स्वीकार करो श्रद्धा के पुष्प……. 3- जिन प्रेम कियो, तिन्हीं प्रभु पायो…… 4- कोई दे, न सहारा दे, मुझे तेरा सहारा है, दुनिया में सिवा तेरे, न कोई हमारा है……. 5- तेरे प्रेम को शब्दों में, कभी बांध नहीं पाऊंगा, जब तक हैं प्राण मेरे, गुणगान सदा गाऊंगा…… इत्यादि भजनों की सरस प्रस्तुति से संगत मुग्ध हो गई और करतल ध्वनि के साथ झूमने लगी।
इन भजनों में विद्यमान आध्यात्मिक गूढ़ार्थों की पूर्ण व्याख्या करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया। अपनी विवेचना में उन्होंने कहा कि सर्व अंतर्यामी गुरूदेव सदा मन की सुना करते हैं। चाह कर भी इन्सान अपने भीतर की अवस्था उनसे छुपा नहीं पाता है। छत्रपति शिवाजी के जीवन की एक प्रेरक घटना को संगत के समक्ष उद्धृत करते हुए विदुषी जी ने बताया कि छत्रपति शिवाजी के पूर्ण गुरू हुए हैं, समर्थगुरू रामदास। समर्थगुरू के आश्रम में अनेकानेक शिष्यों के बीच गुरू का शिवा के प्रति अत्यधिक प्रेम सदा चर्चा का विषय बना रहता था। एक दिवस शिष्यों ने समर्थ से पूछ ही लिया कि हे गुरूदेव! इतने सारे शिष्यों में से आप शिवा को ही विशेष प्रेम क्यों किया करते है? गुरूदेव खमोश रहे। अगले ही दिवस उन्होंने सब शिष्यों के वन भ्रमण का कार्यक्रम बनाया और जंगल में जाते ही उन्होंने एक दिव्य लीला की, वे पेट दर्द से कराहने लगे, सब शिष्य घबराने लगे और अपने गुरूदेव से बोले कि हम आपके लिए औषधि का प्रबन्ध करते हैं, इस पर गुरूदेव बोले कि तुम चिंता मत करो हमारे पास औषधि विद्यमान है, किन्तु! यह औषधि मात्र शेरनी के दूध के साथ ही सेवन की जा सकती है अतः आप में से कौन है जो हमारे लिए शेरनी के दूध को ला सकता है? सभी शिष्य सकपकाए से बगलें झाँकने लगे, तब। समर्थ बोले जाओ मेरे शिवा को यह समाचार दो। जैसे ही शिवा को मालूम चला तो वह तुरन्त जंगल की ओर दौड़ पड़े। चूंकि गुरूदेव ने यह भी कहलवा भेजा था कि स्वर्ण पात्र लेकर जाएं क्योंकि शेरनी का दूध सिर्फ सोने के बर्तन में ही टिक पाता है इसलिए वे स्वर्ण पात्र लेकर शेरनी की गुफा की ओर प्रस्थान कर गए। गुफा के आगे शेरनी दहाड़ रही थी लेकिन छत्रपति की श्वांसों मंे तो पूर्ण गुरू का वह आदिनाम गूंज रहा था जिसके संबंध में शास्त्र कहता है- ‘‘सद्गुरू शबद् स्वरूप हैं, न आदि न अन्त।’’ नाम की महिमा के आधीन हो शेरनी ने बिना कोई प्रतिरोध किए शिवा को अपना दूध दुहने दिया। इस प्रकार शिवा अपने गुरूदेव के लिए स्वर्ण पात्र में शेरनी का दूध लेकर उनके पास पहुंचा तो गुरूदेव मुस्कुरा रहे थे, वे बोले- शिवा मेरी पीड़ा तो उसी क्षण मिट गई थी जब तुम स्वर्ण पात्र लेकर शेरनी की गुफा की ओर बढ़ चले थे। सभी शिष्यों की ओर निहारते हुए समर्थ गुरू बोले- आप सभी समझ ही गए होंगे कि मैं शिवा को अत्यधिक प्रेम क्यों किया करता हूं? इतिहास गवाह है समर्थ की कृपा से ही शिवा बने, छत्रपति शिवा जी। गुरू तो इतने समर्थ होते हैं कि शिष्य के भीतर उठने वाले समस्त भावों और आवेगों को सहज़ ही पढ़ लिया करते हैं। सूक्ष्मदृष्टा पूर्ण गुरू के संबंध में ही कहा भी गया- ‘चींटी के पग नूपुर बाजे, सो भी साहिब सुनता है।’ इन्सान बाहरी तौर पर चाहे जितना मर्जी भक्ति कर ले, जप-तप, व्रत-उपवास कुछ भी कर लेने पर भगवान नहीं रीझते जो कि शुद्ध-सरल भावप्रवण प्रेम से रीझा करते हैं, भगवान रीझते ही नहीं अपितु भक्त के वश हो जाते हैं। साध्वी जी ने कबीर साहब का कड़वी तुमड़ी वाला दृष्टांत साथ ही मीरा का प्रभु श्री कृष्ण के साथ अगाध प्रेम का प्रसंग सुना कर भक्तजनों को अभिभूत कर दिया।
कार्यक्रम के समापन से पूर्व देहरादून आश्रम की संयोजक विदुषी अरूणिमा भारती जी ने अपने उद्बोधन में कहा कि गुरू दरबार की सेवा में ‘चॉइस’ (पसन्द) नहीं हुआ करती क्योंकि सद्गुरूदेव के दरबार में तो समस्त सेवाएं एक जैसी हुआ करती हैं। उन्होंने श्री गुरू गोविन्द सिंह जी के जीवनकाल की प्रेरक घटना के द्वारा सेवा के महत्व को समझाया और कहा गुरूदेव ने अपने सजे हुए दरबार के मध्य शिष्य से तीन पानी भरे बर्तन मंगवाए और एक पत्थर, एक मिट्टी का ढेला तथा एक बताशा मंगवा कर यह तीनों चीजे़ एक-एक जल भरे पात्र में डलवा दिए। कुछ समय उपरान्त शिष्य से एक-एक कर बाहर निकलवाए तो पहले जल पात्र से निकला हुआ पत्थर भले ही गीला था परन्तु उसके भीतर कोई नमी नहीं थी। दूसरे पात्र से जब मिट्टी का ढेला निकालने को गुरूदेव ने बोला और शिष्य ने जैसे ही उस पात्र में हाथ डाला तो मिट्टी का ढेला गल चुका था और पात्र के भीतर तली में बैठ चुका था। अब तीसरे पात्र का जब नम्बर आया तो शिष्य ने पात्र में हाथ डाला और अपने गुरूदेव से बोला- गुरू महाराज जी बताशा तो पूर्णतः पानी में ही समाकर पानी का ही रूप हो चुका है। श्री गुरू गोविन्द जी ने संगत को समझाया कि ठीक इसी प्रकार से शिष्य-सेवक भी तीन प्रकार के हुआ करते हैं। इसलिए साधक-शिष्य को सदैव ‘स्वाध्याय’ (स्वयं का अध्ययन) करते रहना चाहिए। संसार जैसा प्रेम यदि भगवान से, सद्गुरू से हो जाए तो कल्याण ही कल्याण समझो। वास्तव में एक परमात्मा ही हैं जो प्रेम के वास्ताविक कद्रदान होते हैं, संसार तो प्रेम को भी स्वार्थ के तराजू पर तोलकर बेच दिया करता है। विदुषी जी ने जोर देकर कहा कि मानव जीवन में सत्संग ही सबसे अहम् है जहां मानव को वास्तव में मानव बनाने का सर्वाेपरि कार्य सम्पादित होता है। मनुष्य की मात्र इतनी बिसात है, जिसे महापुरूषों ने इन दो लाइनों में उजाग़र किया है- ‘पानी केरा बुदबुदा अस मानष की जात, देखत ही छिप जाएगा ज्यौं तारा प्रभात।’ महापुरूष उच्च अवस्था में आरूढ़ होकर संसार के लिए जो कहा करते हैं, उनकी बातों को पूर्णरूपेण समझना हो तो इन्सान को उसी ऊँचे स्तर पर पहुंचना होगा। ज्ञान जीवन में आनन्द भर देता है फिर भी यदि कोई दुखी है तो फिर गुरू की प्रसन्नता को भला! किस प्रकार प्राप्त कर सकता है। गुरूदेव तो सदा यही उद्घोष किया करते हैं- संसार की नय्या को हम पार लगा देंगे, भटके हुए राही को हम राह दिखा देंगे। दृढ़ संकल्प के साथ जब शिष्य मार्ग पर चलता है तो सद्गुरूदेव का महान लक्ष्य ‘विश्व शांति’ अपनी सफलता की ओर अग्रसर होने लगता है।
माह का प्रथम रविवार होनेे पर आश्रम मंे भण्डारे का आयोजन किया गया।