देहरादून। गुरू की महिमा अपार है, महान है, अपरम्पार है। सद्गुरू करूणा के सागर हुआ करते हैं जो कि शिष्य के भीतर अज्ञानता के अंधकार को दूर कर ज्ञान का अंजन शिष्य के नेत्रों में डालकर उसे जन्मों-जन्मों के दुष्कर्मों से छुटकारा देकर परमात्मा तक पहुंचा दिया करते हैं एैसे ही गुरू को ‘परमगुरू’ कहा गया है। शास्त्रों के मुताबिक गुरूओं की समस्त श्रेणियों में परम गुरू ही सर्वश्रेष्ठ गुरू कहे गए हैं, जो कि भव से पार लगा अपने शरणागत को परम धाम तक लेकर जाते हैं, इसीलिए वे परम गुरू कहलाते हैं। पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ एैसे ही गुरू के लिए शास्त्र आदेश करता है- ‘गुरू को कीजिए दण्डवत्, कोटि-कोटि प्रणाम…।’ गुरू की पूर्ण आज्ञा में चलने वाला शिष्य ही गुरू की सम्पूर्ण अनुकम्पाओं को प्राप्त कर पाता है। एैसा ही शिष्य जान पाता है कि उसके गुरू सृष्टि में अतुलनीय भी हैं और अद्वितीय भी हैं। एक शिष्य से जब किसी जिज्ञासु ने पूछा कि आपके गुरू कैसे हैं? आप उनकी उपमा दें! क्या वे सूर्य के समान हैं? या फिर वे चंद्रमा की मानिन्द हैं? इस पर गुरूमुख शिष्य ने भावपूरित स्वर में उनसे कहा कि न तो मेरे गुरूदेव सूर्य के समान हैं, क्यों कि भले ही सूर्य में चमक है, प्रकाश है लेकिन साथ ही तपिश भी तो है। मेेरे गुरूेदव में तो तनिक मात्र भी तपिश या ऊष्णता नहीं है, वे तो अपने भक्तों के भीतर विद्यमान उनकी जन्म-जन्मांतरों के कुसंस्कारों रूपी तपिश का ही शमन करने वाले, समस्त विकारों-बुराईयों की दुखदाई ऊष्णता को हर लेने वाले दयासिंधु हैं। मेरे गुरूवर चाँद के सदृश भी नहीं है क्यांे कि चँद्रमा के ललाट पर तो दाग़-धब्बे हुआ करते हैं और चँद्रमा तो नित्य घटता-बढ़ता रहता है जबकि मेरे परम कृपालु गुरूदेव तो सदैव अपने शिष्यों पर एक समान रहकर नित्य कृपा किया करते हैं और शिष्य के दामन पर लगे दाग-धब्बों को अपने करूणा रूपी साबुन से धो डालते हैं। वास्तव में मेरे गुरू की तो किसी से भी तुलना ही असम्भव है, मेरे गुरू तो बस! मेरे गुरू जैसे ही हैं। परम गुरू की परम वंदना के लिए कबीर साहब द्वारा रचे गए इस दोहे पर दृष्टिपात करें- सब धरती कागद् करूँ, लेखनि सब वनराय, सात समुँद की मसि करूँ, गुरू गुण लिखा न जाय। एैसे ही गुरू की शास्त्र ‘नेति-नेति’ कहकर अभिवंदना किया करते हैं। देवाधिदेव भगवान भोलेनाथ भी माता पार्वती जी के समक्ष परम गुरू के संबंध में कहते हैं कि- हे देवी, एैसे परम गुरू तो ब्रह्म से भी ऊपर हुआ करते हैं! यही सत्य है, यही सत्य है, यही सत्य है, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं। एक शिष्य अपने सद्गुरूदेव का र्निगुण रूप अपने हृदय मंे तथा सगुण स्वरूप अपने नयनों में बसाकर रखता है और हर पल-हर क्षण मात्र उन्हीं का चिंतन, उन्हीं का सुमिरन किया करता है। गुरू कृपा को शब्दों में वर्णित किया ही नहीं जा सकता।
उपरोक्त इन सद्विचारों की दिव्य प्रस्तुति आज दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के निरंजनपुर, देहरादून स्थित आश्रम सभागार में रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों तथा सुमधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम में सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा की गई। साध्वी जी ने आगे बताया कि सद्गुरू नित्य अपनी कृपाओं को शिष्यों पर लुटाया करते हैं, केवल वही शिष्य उनकी कृपाओं को लूट लिया करते हैं जो अपना पूर्ण समर्पण अपने गुरू के श्रीचरणों में कर दिया करते हैं। साध्वी जी ने बताया कि भगवान श्री कृष्ण रूपी गुरू ने कैसे पग-पग पर अपने शिष्य अर्जुन पर अपनी कृपाएं लुटाईं और अर्जुन ने किस प्रकार से उन्हें भाव-विभोर होकर लूटा! क्या श्री कृष्ण के बिना अर्जुन का जीवन, अर्जुन की सफलता, अर्जुन के यश की कल्पना भी की जा सकती है? अर्जुन ने भी अपने भीतर शिष्य की पात्रता को विकसित कर लिया था। मदद के रूप में अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चतुरंगिनी सेना का नहीं अपितु श्रीकृष्ण का ही चुनाव किया था, जबकि दुर्योधन से भी पहले भगवान ने उन्हें ही मौका दिया था। एैसे शिष्य अर्जुन के शीश पर भला! विजय का सेहरा भगवान क्योंकर न बांधते। दुर्योधन अजेय चतुरंगिनी सेना को पाकर भी परास्त हो गया, उसकी मृत्यु हो गई। यही फर्क है भगवान और उनकी माया में। जो माया चाहता है उसे अवश्य माया मिल जाती है परन्तु जो माधव को चाहते हैं उनके पास तो माया चेली बन माधव के साथ-साथ चली आती है। विडम्बना तो यह है कि आज संसार में लोगों को माधव नहीं केवल उनकी माया चाहिए, फिर माया ही उन्हें तिगनी का नाच नचाया करती है, अपनी चकाचौंध से उनकी बुद्धि-विवेक को हर लेती है, जीवन को निरर्थक कर दिया करती है। इसलिए सद्गुरूदेव सदैव अपने शिष्यों को महाठगिनी दुस्तर माया से बचाकर मायापति का संरक्षण प्रदान कर दिया करते हैं। महापुरूषों ने ठीक ही कहा है- ‘माया-माया हर कोई भजे, माधव भजे न कोय, जे प्राणी माधव भजे, माया चेरी होय।’ इसलिए मनुष्य को संसार का नहीं करतार का चयन करना चाहिए। साध्वी जी ने श्री रामकृष्ण परमहंस जी के शिष्य ‘लाटू’ के साथ-साथ महाभारत काल की घटना और बाबा फरीद का जीवन वृतांत सुनाकर भक्तों का ज्ञानवर्धन भी किया।
कार्यक्रम में अनेक भावभीने भजनों का गायन करते हुए संस्थान के संगीतज्ञों द्वारा संगत को निहाल किया गया। 1- मुझे अपनी शरण में ले लो राम……., 2- साथ न होता तुम्हारा तो, हमको न मिलता किनारा…… 3- सारे जग मंे गुरू जैसा कोई दाता नहीं, गुरू सम माता, बन्धु, सखा कोई भ्राता नहीं…… 4- सुन ओ राही मंज़िल से पहले साहस टूटे ना, गुरू की सेवा का ये मौका, हाथ से छूटे ना….. 5- सदगुरू तुम्हारे प्यार ने जीना सिखा दिया, दुनिया की ठोकरों ने तेरे दर पे ला दिया…… तथा 6- छुपे हो तुम कहाँ, कहीं कोई अता-पता……. इत्यादि भजन प्रस्तुत किए गए।
मंच का संचालन करते हुए भजनांे की गूढ़ मिमांसा साध्वी विदुषी ममता भारती जी के द्वारा गई। उन्होंने कहा कि विचारों को सुनने मात्र से जीवन में बदलाव सम्भव नहीं है, सुनने के साथ-साथ इनका मनन-चिंतन-अमल भी आवश्यक है तभी मानव जीवन में सकारात्मक परिवर्तन हो पाता है। यदि वक्ता ब्रह्मज्ञानी हो साथ ही श्रोता भी ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो तो यह संयोग परम सौभाग्य का सूचक है। अंगुलीमाल डाकू से लेकर गणिका वेश्या और सज्जन ठग तक यह सभी जब पूर्ण महापुरूष के सानिध्य में आए तो नारकीय जीवन गुज़ार रहे ये सभी लोग पूजनीय बन गए। पूर्ण गुरू का ब्रह्मज्ञान वह सामर्थ्य रखता है जो मनुष्य के जीवन को आमूल-चूल रूप से परिवर्तित कर दिया करता है। पूर्ण गुरू अपने शिष्य को सदैव अपने चरणों में स्थान दिए रखते हैं क्योंकि वे जनते हैं के इसके अतिरिक्त जाने पर शिष्य संसार की बुराईयों-विकारों में ही लिप्त होगा। इसीलिए वे श्रीचरणों की शीतल छाया में शिष्य को पनाह दिए रखते हैं ताकि वह कर्मों की तपिश में झुलसे नहीं, माया के मायाजाल से मुक्त रहकर हरि भजन में ही लीन रहे। साध्वी जी ने कहा कि गुरू की आज्ञा का अक्षरशः पालन करना ही उनकी शरणागति में रहना है। गुरू एक कुशल नाविक के सदृश होते हैं जो शिष्य की हिचकोले खाती नइया को परमात्मा रूपी किनारा प्रदान किया करते हैं। गुरू को पाने के बाद फिर शिष्य चिंता नहीं केवल चिंतन किया करता है। आवश्यकता इतनी भर है कि शिष्य के भीतर गुरू के प्रति अटल विश्वास और अपूर्व धैर्य विद्यमान होना चाहिए। याचक शिष्य सदैव अपनी झोली दाता गुरू के आगे फैलाता है, एक मात्र गुरू ही हैं जो कि शिष्य की आकांक्षाओं पर खरे उतरा करते हैं। गुरू शिष्य को वह सम्पत्ति देते हैं, जिसे शास्त्र ‘दैवीय सम्पत्ति’ कहते हैं। यही सम्पत्ति शिष्य को भव से पार लगाकर उसे ईश्वरीय धाम का अधिकारी बना देती है। भगवान के द्वारा जहां मनुष्य की प्रत्येक मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं वहीं गुरू अपने शिष्य को वही देते हैं जिसमें शिष्य का परम कल्याण निहित हुआ करता है, भले ही! शिष्य को कोई कष्टपूर्ण स्थिति का ही सामना क्यों न करना पड़े, गुरू प्रदत्त प्रत्येक उपलब्धि मात्र शिष्य के कल्याणार्थ ही हुआ करती है। इसीलिए कृपासिन्धु गुरूदेव के लिए ही कहा भी गया- ‘कृपा की न होती जो आदत तुम्हारी, तो सूनी ही रहती अदालत तुम्हारी।’
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।