देहरादून। प्रत्येक सप्ताह की भांति आज भी ‘दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान’ की देहरादून शाखा 70, इंदिरा गांधी मार्ग (सत्यशील गैस गोदाम के सामने) निरंजनपुर स्थित आश्रम सभागार में दिव्य सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का विशाल स्तर पर आयोजन किया गया। शुभारम्भ में भजनों की सुन्दरतम प्रस्तुति के द्वारा मंचासीन ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों ने उपस्थित भक्तजनों को भाव-विभोर करते हुए अनेक भजनों का गायन किया। 1- तुम करूणा के सागर हो प्रभु, मेरी गागर भर दो……. 2- तृष्णा न जाए मन से, कृष्णा न आए मन में, जतन करूँ मैं हज़ार मेरे राम जी, कैसे लगेगी नइया पार…… 3- गुरू चरण की वन्दना में सुर सजा ले आज मन, सतगुरू की अर्चना में गीत गा ले आज मन……. 4- ताप सह-सह के विषयाँ दा, कालख़ मेरे सारे करमाँ दी, मिटेदियाँ सत्गुरू प्यारे ने……. तथा 5- कृपा करो हे आशुतोष, पथ पर आगे बढ़ते जाएं……. भजनों पर संगत झूम-झूम उठी।
भजनों में व्याप्त आध्यात्मिक गूढ़ार्थों की समग्र विवेचना करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी के द्वारा किया गया। उन्होंने कहा कि परमात्मा जब मनुष्य पर प्रसन्न होते हैं तो वे उसे कोई दुनियावी वस्तु, कोई भौतिक पदार्थ भेंट स्वरूप न देकर उसे संतों का संग प्रदान कर दिया करते हैं अर्थात सत्संग की प्राप्ति करवा देते हैं। प्रभु के साथ प्रेम तथा उस प्रेम की प्रगाढ़ता के लिए पूर्ण गुरू का दिव्य सत्संग अत्यंत आवश्यक है, इसे महापुरूषों ने भक्ति की प्रथम पाठशाला भी कहा है। प्रभु श्री राम ने भी जब भक्तिमति शबरी को ‘नवधा भक्ति’ का वरदान दिया तो प्रथमतः यही कहा- ‘प्रथम भक्ति सन्तन कर संगा……।’ ईश्वर से यदि कोई सांसारिक वस्तुएं, भौतिक पदार्थ मांगे तो यह तो भक्ति के बदले चाही गई मज़दूरी की ही तरह है, यह वस्तुएं तो वैसे भी क्षणभंगुर हैं, आज हैं, कल नहीं। ईश्वर से यदि कुछ मांगना ही हो तो, ईश्वर से ईश्वर को मांग लेना चाहिए। यदि ईश्वर मिल गए तो उनका सकल साम्राज्य ही भक्त का हो जाता है। जिस प्रकार सूर्यादय होने पर अंधकार का जाना तय है उसी प्रकार प्रभु के मिल जाने पर अज्ञानता के अंधकार का और समस्त अभावों का समाप्त हो जाना भी तय है।
भक्तों ने तो यही कहा- ‘‘हे प्रभु किसी से क्या मांगूं, मैं तुझसे ही मांगता हूं, तुझसे भी क्या मांगूं, मैं तुझी को मांगता हूं।’’ साध्वी जी ने अपने व्याख्यान में आगे बताया कि गुरू भक्ति का जो मार्ग है, यह एक भक्त को भक्ति की सर्वोच्चता और सम्पूर्णता की ओर उन्मुख करने वाला दिव्य मार्ग है। गुरू यदि प्रसन्न हैं तो ईश्वर स्वतः ही प्रसन्न हो जाया करते हैं। बस! आवश्यकता इतनी भर है कि शिष्य से एैसा कुछ भी न हो जाए जिससे गुरूदेव की प्रसन्नता में लेश मात्र भी कमी आ पाए। करूणामयी सद्गुरूदेव अपने पावन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ रूपी अनमोल ख़जाने की पूंजी अपने शिष्य पर वार देते हैं। गुरू की कृपा के साथ-साथ शिष्य का पुरूषार्थ भी अति आवश्यक है। मंज़िल की प्राप्ति में कृपा और पुरूषार्थ दोनों का समन्वय ही लक्ष्यसिद्धि में सर्वोपरि स्थान रखता है। गुरू की प्रसन्नता ही शिष्य का अद्वितीय उपहार है। शिष्य का तो यही कथन होता है- ‘गुरू-गुरू-गुरू कर मन मोर, गुरू बिना मैं नांहि होर’।
अपने आज के सत्संग प्रवचनों में दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के ‘संस्थापक-संचालक सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी’ की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी ममता भारती जी ने कहा कि भक्ति मार्ग में चलते हुए भक्त के जीवन में अनेक प्रकार की कठिनाईयां, अनेक प्रकार की बाधाएं और अनेक प्रकार की परेशानियां उसके मार्ग को अवरूद्ध करने के लिए आन खड़ी होती हैं। महापुरूषों ने एैसे ही नहीं कह दिया इसे ‘खण्डे की धार।’ लेकिन इस पैनी धार पर भी चला जाता है। इस पर चलने के लिए पूर्ण रूप से अपने सद्गुरूदेव के आधीन होना पड़ता है। शिष्य जब भक्ति की दुर्गम राहों पर चलते-चलते इनमें व्याप्त दुश्वारियों से जूझते-जूझते थक जाता है और अपने करूणासिंधु गुरूदेव के समक्ष सहायता की गुहार लगाता है तब सामर्थ्यवान सद्गुरूदेव अपने शिष्य की करूण पुकार सुनकर तुरन्त उसकी मदद के लिए उसे अपना गुरूतापूर्ण सानिध्य प्रदान किया करते हैं। जो शिष्य अक्षरशः अपने गुरूदेव की आज्ञा पर चलता है तो उसे, उनसे अपार शक्ति प्राप्त होती जाती है। शिष्य बाधाओं, रूकावटों, कठिनाईयों में गुरू निर्देश प्राप्त कर सहज़ता के साथ, दुगनी ऊर्ज़ा के साथ मार्ग में चलायमान होने लगता है। साध्वी जी ने कहा कि भक्ति मार्ग में एक ही सूत्र अत्यन्त कारगर सिद्ध होता है, वह है शिष्य का निरन्तर चलना। महापुरूषों ने इसी के लिए कहा भी है- ‘चरेवेति-चरेवेति’, निरंतर चलते रहो। कैलिर्फोनिया की घटना, जिसमें विशाल शिलाखण्डों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक कई मीलों तक चलने की आश्चर्यजनक बात है, यह भले ही वैज्ञानिकों की समझ से परे की बात हो, परन्तु जड़ वस्तु पे भी यह निरंतर चलते जाने पर फिट बैठती है। ईश्वर ने प्रकृति में जिन भी चीज़ों का समावेश किया है वे सभी निरंतर चलती ही तो रहती हैं। सूर्यदेव, चंद्रदेव, समस्त सौरमण्डल, तारामण्डल, नदी, हवा, झरना इत्यादि सदा बहते-चलते रहते हैं। इसके साथ-साथ प्रकृति जन्य जो भी संसाधन परमात्मा ने मानव समाज़ के लिए जुटाए हैं उन सभी के भीतर से यही दिव्य संदेश तो प्रस्फुटित होता है- चरेवेति-चरेवेति। इसे एक त्रासदी ही तो कहा जाएगा कि ‘सृष्टि का सिरमौर’ कहा जाने वाला तथा समस्त योनियों में परमात्मा का सबसे अधिक प्रिय मनुष्य ही एक एैसा प्राणी है जिसकी गति मात्र छोटी-छोटी तकलीफों, गौण कठिनाईयों और तिल भर बाधाओं में थम जाया करती है। मनुष्य की गतिशीलता में कमी का एक ही कारण है कि वह बाधाआें को पार करने में प्रयुक्त होने वाली दैवीय दिव्य शक्ति से अनभिज्ञ रहते हुए ईश्वर के साथ अपना तादातम्य स्थापित नहीं कर पाता। पूर्ण आत्मनिष्ठ संत-सद्गुरू की कृपा द्वारा प्रदत्त उस महान और पावन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ के अभाव में उसे यह ईश्वरीय शक्ति नहीं मिल पाती और वह छोटी-छोटी चीज़ों में हतोत्साहित हो जाता है। साध्वी जी ने अनेक पौराणिक शास्त्रोक्त दिव्य उदाहरणों से निरंतर चलते रहने की बात पर ज़ोर दिया और चरेवेति-चरेवेति की देवराज इंद्र द्वारा की गई व्याख्या को भी उद्धृत किया। उन्होंने कहा कि भक्ति मार्ग के साधक के लिए आवश्यकता इतनी भर है कि चाहे बाधाएं कितनी भी आएं, कितना भी राह को रोकें पर प्रभु प्राप्ति के मार्ग के राही को रूकना नहीं है, झुकना नहीं है, ठहरना नहीं है। दृष्टि केवल अपने रहबर, अपने गुरूदेव पर रखनी है, लक्ष्य सिद्ध होकर ही रहेगा, मंज़िल सम्मुख आकर रहेगी। गुरू आज्ञा में सदैव तत्परता के साथ अग्रसर होना चाहिए। गुरू कृपा और शिष्य का पुरूषार्थ दोनों का समन्वय ही सफलता का धोतक है। महाभारत काल के अर्जुन तथा कर्ण से सम्बन्धित प्रेरक प्रसंग को भक्तों के समक्ष रेखांकित करते हुए उन्होंने बताया कि अर्जुन से भी श्रेष्ठ होते हुए कर्ण इसलिए विफल हो गया क्योंकि उसके पास मात्र पुरूषार्थ ही था, कृपा नहीं। अर्जुन परम पुरूषार्थी होने के साथ-साथ भगवान श्री कृष्ण का कृपा पात्र भी था इसलिए अर्जुन सफलता के उन्नत शिखर पर आरूढ़ हुआ। साध्वी जी ने कहा कि जो सो रहा है वह ‘कलियुग’ है, जो अंगड़ाई ले रहा है वह ‘द्वापर’ है, जो उठ कर खड़ा हो गया वह ‘त्रेता’ है और जो चल रहा है वह ‘‘सतयुग’’ है। चलते रहने वाला ही सतयुग में प्रवेश भी पाता है और चलते रहने पर ही ‘मोक्ष’ का वरण भी कर पाता है। इसलिए ‘बाधाएं कब बांध सकीं हैं, पथ पर बढ़ने वालों को।’ यह बात सदैव एक भक्त को स्मरण रहनी चाहिए।
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।