देहरादून। प्रत्येक रविवार की भांति आज भी दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की देहरादून स्थित निरंजनपुर शाखा के आश्रम सभागार में दिव्य सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का विशाल स्तर पर आयोजन किया गया। सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी ने अपने उद्बोधन मंें उपस्थित संगत के समक्ष ‘मन’ के क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालते हुए बताया कि मन प्रत्येक मानव को संचालित करने का महती कार्य किया करता है। वास्तव में मन कोई शरीर का एैसा भाग जैसे हार्ट, किडनी, लीवर अथवा लंग्स इत्यादि की तरह का कोई अंग नहीं है और न ही इसकी इन अंगों के ईलाज़ की तरह कोई चिकित्सा ही है। मन तो अनन्त विचारों का, अंतहीन भावनाओं का एक समूह मात्र है। मन ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान किया करता है और यही मन मानव को अद्योगति की ओर भी अग्रसर कर देता है। मन मानव का मित्र भी है और यही मन उसका एक बड़ा शत्रु भी है। यह मन तभी तक शत्रु है जब तक इस मन को साधने वाला कोई पूर्ण महापुरूष मनुष्य के जीवन मंे नहीं आ जाता और उसे इस मन रूपी हाथी पर नियंत्रण करने वाला दिव्य अंकुश ‘‘ब्रह्म्ज्ञान’’ प्रदान नहीं कर देता। मनुष्य को सदैव अपने मन में उठने वाले विचारों पर दृष्टि रखनी चाहिए कि कहीं मन का ज्वारभाटा उसे मँझधार में ही डूबो न दे इसलिए मन की समस्त गतिविधियों पर सावधानी पूर्वक दृष्टिपात करते हुए इसे निरन्तर सकारात्मक भोजन परोसना चाहिए। मन का तो स्वभाव ही है कि इसे नकारात्मक कुविचारों रूपी गरिष्ठ भोजन ही भाता है। इसकी इच्छा के विपरीत इसे निरन्तर आध्यात्मिक सकारात्मक खुराक देते जाते रहने पर यह फिर कुछ समय पश्चात इन्हीं का आदि हो जाता है और तदुपरान्त इसे इसका मूल समझ आ जाता है तथा फिर यह पूर्णरूपेण ईश्वरमय होकर सध जाता है, जीव को भव से पार लगा दिया करता है। साध्वी जी ने बताया कि मन की अद्योगामी त्रासदी पर कबीर साहब तो यहां तक कहते हैं- ‘‘मन के मते न चालिए मन पक्का यमदूत, ले जाए दरिया में जाए हाथ से छूट’’। वास्तव में इस संसार में वास्तविक विजेता वही है जिसने अपने मन पर विजय प्राप्त कर ली। कहा भी गया- ‘मन जीते, जगजीत’। मन की जीत ही विश्व विजय की धोतक है।
कार्यक्रम में संस्थान के ब्रह्म्ज्ञानी संगीतज्ञों ने अनेक मधुर भजनों का गायन कर संगत को झूमने पर विवश कर दिया। 1- गुरूवर तेरे चरणांे में, ये जीवन गुज़र जाए…….. 2- तेरी ही आरजू़ है तेरा इंतज़ार है, आ जाओ लौटकर तुम गुरूवर, हमको तुमसे प्यार है……. 3- ओ कित्थे तैनूं नाम दियां चढ़ियां खुमारियां, कित्थों रंगवाईयां असां पूछदियां सारियां…….. 4- तुम पग-पग पर समझाते हम फिर भी समझ न पाते, ये कैसा दोष हमारा हम गलती करते जाते……. 5- एक आग लगी है सीने में…… तथा 6- नैनों में बस जाओ मेरे, सतगुरू जी साँवरिया…….. इत्यादि सुर-लय-ताल से परिपूर्ण भजनों ने धूम सी मचा दी। भक्तजन आनन्दित हो भजनों में खो गए।
प्रस्तुत भजनों की गूढ़ आध्यात्मिक मिमांसा करते हुए मंच का संचालन साध्वी विदुषी ममता भारती जी के द्वारा किया गया। उन्होंने बताया कि जब-जब वह परम शक्ति साकार रूप धारण कर पूर्ण सद्गुरू के रूप में आती है तो विश्व शांति का दिव्य बिगुल बज जाता है। चंूकि सद्गुरूदेव दया सिंधु हुआ करते हैं इसलिए वे अपनी समस्त सम्पदाएं जनमानस पर बिना किसी भेदभाव के लुटा दिया करते हैं। सद्गुरूदेव आध्यात्म के साथ-साथ भौतिक सम्पदाओं के भी प्रदाता हुआ करते हैं। यह तो शिष्य पर निर्भर करता है कि वह इन सम्पदाओं को कितना ग्रहण कर पाता है? यह आध्यात्मिक अनमोल सम्पदा है सनातन-पुरातन पावन ब्रह्म्ज्ञान। इस पावन ब्रह्म्ज्ञान के भीतर ही समस्त सम्पदाएं समाहित हैं। सद्गुरूदेव जिस पर रीझ गए समझिए फिर उसे कुछ भी मांगने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। गुरूवर स्वयं ही उस शिष्य को, जो कि किसी भी परिस्थिति में, कैसे भी समय में मात्र उनकी पूर्ण आज्ञा का अक्षरशः पालन किया करता है, उसे अपने समस्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया करते हैं। साध्वी जी ने एक बड़ा ही सारगर्भित दृष्टांत रेखांकित करते हुए कहा कि एक ऋषि के द्वारा जब अपने शिष्यों से पूछा गया कि यह बताएं कि समस्त विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ विद्या कौन सी है? तब उनके द्वारा दीक्षित शिष्यों में से एक ने कहा गुरूवर मेरे लिए तो सबसे प्रिय विद्या यह है कि मैं मंत्र शक्ति से कहीं भी, कभी भी अग्नि प्रकट कर सकूं। दूसरा शिष्य सगर्व बोला कि हे गुरूदेव मैं तो अपनी सिद्धी के बल पर जल पर चलने वाली विद्या को ही श्रेष्ठ मानता हूं, तीसरा बोला गुरू महाराज जी मैं अपनी विद्या से भीषण आंधी को भी रोक लूं यही मेरे लिए श्रेष्ठ विद्या की श्रेणी में आता है, चौथा शिष्य जो कि पूर्णतः अपने सद्गुरूदेव पर ही आश्रित था और उनकी पूर्ण आज्ञा में चल रहा था, अपने गुरू के श्री चरणों में दण्डवत प्रणाम करते हुए बोला, हे प्रभु मैं एैसी किसी भी अपरा विद्या में रूचि नहीं रखता जो बंधनकारी हो और संसार में उलझाती हो, मेरे लिए तो गुरूवर आप द्वारा प्रदत्त वह परम कल्याणकारी ब्रह्म्विद्या जिसे ब्रह्म्ज्ञान, राजविद्या तथा परमविद्या भी कहा जाता है, यही सर्वश्रेष्ठ विद्या है, मैं तो इसी विद्या में आपकी कृपा से पारंगत होने का नित प्रयास किया करता हूं, यही परम श्रेष्ठ विद्या है। गुरूदेव ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए इस शिष्य को अपने हृदय से लगा लिया और कहा कि वत्स! वास्तव में तुम ही मेरे सर्वश्रेष्ठ शिष्य हो। जिसने अपने मन पर विजय पा ली एैसे विजेता शिष्य पर तो प्रकृति भी न्यौछावर हो जाया करती है।
कार्यक्रम के समापन से पूर्व सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी अरूणिमा भारती जी ने अपने विचार प्रवाह के मध्य बताया कि मन ही तो मानव की समस्त कारगुजारियों का मुख्य कारक है। यही मन मनुष्य की मुक्ति तथा बंधन दोनों की वजह है, बस! दिशा का अंतर है। जिस प्रकार ताले को खोलने तथा बंद करने के लिए एक ही चाबी की आवश्यकता पड़ती है, ठीक! इसी प्रकार इस मन की भी गति है। चाबी की दिशा, सकारात्मक है तो श्रेष्ठ फलदायी होगी और यदि दिशा नकारात्मक है तो असफलता ही प्रदान करेगी। यह महत्वपूर्ण है कि मन कैसा है? उसके भीतर क्या चल रहा है बस! यही सुख और दुख का भी कारण है। दूषित मन जब हरि की भक्ति से सुन्दर हो गया तो कबीरदास जी के मुखारबिन्द से निकला- ‘‘कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर, पाछे-पाछे हरि फिरें कहे कबीर-कबीर’’। साधना, सेवा, सत्संग से ही यह मन सधता है। विदुषी जी ने उपस्थित साधकगणों का आह्वान करते हुए ज़ोर देकर कहा कि मन लगे अथवा न लगे आपका निरन्तर ध्यान-साधना में बैठना महत्वपूर्ण है, साधना का अत्यन्त प्रभाव हुआ करता है। ध्यान-साधना ईश्वर तक पहुंचने का एक दिव्य साधन है, इसी के द्वारा साधक शिखर तक पहुंच जाता है। मन को बार-बार यही समझाने की आवश्यकता है कि- ‘मन तू जोत स्वरूप है, अपना मूल पछाण’।
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।
भवदीय- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून