संगत की रंगत तो प्रभाव डालती ही है- सध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी

देहरादून। महापुरूषों का दिव्य कथन है कि मनुष्य जिस प्रकार की संगत करता है उस पर स्वाभाविक रूप से वैसा ही रंग चढ़ जाता है। इसीलिए तो मनीषियों ने ‘सत्संग’ का प्रावधान रचा ताकि मानव जगत सत्पुरूषों की संगत करे और जीवन में ईश्वरीय रंग में स्वयं को रंग ले। सत्संग का व्यापक असर प्राणी मात्र पर देखने को मिलता है। सत्य के इस संग से मनुष्य को उस अद्वितीय मार्ग का पता चलता है जिसपर अग्रसर होने से उसके जन्म-जन्मान्तरों के समस्त दुष्कर्म, समस्त विकार, समस्त कर्म संस्कार उस ज्ञानाग्नि में स्वाहा होने लगते हैं जोकि सनातन-पुरातन ‘ब्रह्म्ज्ञान’ है तथा पूर्ण ब्रह्म्निष्ठ श्रोत्रिय सद्गुरूदेव के द्वारा प्राप्त हुआ करता है। पूर्ण सद्गुरू ही जीव को भवसागर से पार कर देने की सामर्थ्य रखते हैं। जिसने भी पूर्ण सद्गुरू के आसरे को पा लिया फिर उसे कहीं भी अन्यत्र भटकने की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। बिना गुरू के ब्रह्म्ज्ञान को प्राप्त किए शास्त्र कहते हैं कि भवसागर से पार होना असम्भव है, असम्भव है, असम्भव है। कहा गया- ‘‘गुरू बिन भवनिधि तरई न कोई, ज्यों बिरंचि संकर सम होई।’’ मानव चाहे ब्रह्मा जी जितनी शक्ति प्राप्त कर अनेक सृष्टियों का निर्माण कर ले, देवाधिदेव भगवान शिव आशुतोष जितनी सामर्थ्य प्राप्त कर सृष्टि का विनाश ही क्यों न करने लगे तो भी बिना पूरे गुरू की शरणागत हुए भवसागर से पार होना सर्वथा असम्भव है।
उपरोक्त कल्याणकारी तथा प्रेरणाप्रद सुविचारों को दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, 70 इंदिरा गांधी मार्ग (सत्यशील गैस गोदाम के सामने) निरंजनपुर, देहरादून के आश्रम सभागार में सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या तथा देहरादून आश्रम की प्रचारिका साध्वी विदुषी सुभाषा भारती जी द्वारा मनभावन भजनों की सारगर्भित व्याख्या करते हुए प्रस्तुत किए गए, अवसर था रविवारीय साप्ताहिक सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का।
मंचासीन संगीतज्ञों द्वारा अनेक सुन्दर भजन संगत के समक्ष रखे गए। 1- धन्य हो आशु बाबा तुमने मन में जलाई ज्ञान की ज्योति……. 2- सब देख लिया, सब जान लिया, अब आन बसो प्रभु नैनन में…… 3- प्रभु जी तुमरे दर्शन से अंसुवन की धारा बहती है…… 4- हम जानंे प्रभु जी या तुम जानों, हमें तुमसे है कितना प्यार…… इत्यादि भजन संगत को निहाल कर गए।
गुरू रक्षा कवच बनकर सदा शिष्य की रक्षा करते हैं- साध्वी विदुषी ममता भारती जी
साध्वी विदुषी ममता भारती जी ने अपने प्रवचनों में प्रेम को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रेम यूं तो संसार में अनेकानेक रिश्तों-नातों की धुरी हुआ करता है परन्तु यदि यह प्रेम स्वार्थ, प्रमाद तथा मोह के वशीभूत होकर किया जाए तो यह अपनी गरिमा को खो बैठता है। महापुरूषों ने प्रेम का आधार परमात्मा को बताते हुए कहा है कि- ‘‘जिन प्रेम कियो तिन्हीं प्रभु पायो’’ अर्थात मनुष्य यदि ईश्वर के साथ, अपने सद्गुरूदेव के साथ पूर्ण समर्पित प्रेम करे तो वह संसार की सबसे बड़ी और महान उपलब्धि ईश्वर को भी सहज़ता से प्राप्त कर सकता है। साध्वी जी ने कहा कि यदि मायापति को छोड़ माया के साथ प्रेम किया गया तो एैसा प्रेम जीव को सांसारिक आर्कषणों में उलझा कर दम तोड़ देगा। माया पूरित प्रेम तो ठीक इस प्रकार से है, जिस प्रकार से एक बहती हुई, कल-कल करती सरिता सूखे बेज़ान रेगिस्तान में ज़ज्ब होकर दम तोड़ देती है। दूसरी ओर मायापति से किया गया प्रगाढ़ प्रेम ही सार्थकता को प्राप्त हुआ करता है। ईश्वर को यदि प्रेम का आधार बनाया जाए तो एैसा प्रेम अनन्त सागर रूपी परमात्मा में विलीन होकर महासागर का रूप धारण कर लिया करता है, सफलता को प्राप्त हो जाता है। विडम्बना की बात है कि दुनियावी लोग एक दूसरे को टूट कर चाहने की बात किया करते हैं तभी तो उनका एैसा प्रेम शीध्र ही टूट-फूट कर बिखर जाता है। दूसरी ओर भगवान को, सद्गुरूदेव को आधार बनाकर जब भक्तात्माएं प्रभु चरणों से जुड़-जुड़ कर प्रेम किया करती हैं तो एैसा प्रेम बेजोड़-अनमोल होकर ईश्वर की, सद्गुरूदेव की प्राप्ति का सशक्त आधार बन जाया करता है। विदुषी जी ने शास्त्रीय उदाहरणों के माध्यम से भी प्रेम की अप्रतिम व्याख्या कर भक्तजनों का ज्ञानवर्धन किया, उन्होंने सन्त शिरोमणि तुलसीदास जी के जीवन वृतान्त से प्रेरणा लेने पर बल देते हुए कहा कि कहाँ तो एक साधारण तुलसीदास अपनी पत्नी के मोहजनित प्रेम में दीवाना होकर भयंकर विपरीत परिस्थितियों मंे भी उनसे मिलने पहुंच गया। पत्नी द्वारा उलाहना-प्रताड़ना दिए जाने पर उनका मोह भंग हुआ और उन्होंने स्वामी नरहरि दास जी से ब्रह्म्ज्ञान की दीक्षा प्राप्त कर प्रभु श्री राम के चरणांे से जब अगाध प्रेम किया तो श्रीराम के दिव्य दर्शनांे के साथ-साथ इस संसार को महान ग्रन्थ ‘श्री रामचरितमानस’ प्रदान कर दिया। अपने प्रेम को वे अमर कर गए। एक साधारण तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदास बन गए। गोस्वामी अर्थात अपनी इंद्रियों के स्वामी, अपनी इंद्रियों के अधिपति गोस्वामी तुलसीदास जी कहलाए। जो शिष्य सदैव अपने सद्गुरूदेव पर ही निर्भर रहते हुए उनकी पूर्ण अक्षरशः आज्ञा में चला करता है तो सद्गुरूदेव रक्षा कवच बन कर हमेशा उसकी रक्षा किया करते हैं।
प्रसाद का वितरण कर साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।
भवदीय- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून

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