गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी
(संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)
देहरादून। हम सभी ने श्रीमद् भगवद् गीता, जो भारतीयों के पवित्रतम ग्रंथों में से एक है, के बारे में सुना भी है और पढ़ा भी है। पर क्या आपने उस गीता के बारे में सुना है, जो इससे कुछ वर्ष पूर्व नहीं बल्कि एक युग पूर्व सुनाई गई थी? जिसके वक्ता प्रभु श्री राम हैं और श्रोता श्री लक्ष्मण जी! जी हाँ! बिलकुल सही पढ़ा आपने, हम ‘श्री राम-गीता की बात कर रहे हैं। इसका उल्लेख महर्षि वेद व्यास जी द्वारा रचित ग्रंथ, ‘अध्यात्म रामायण’ के उत्तराखण्ड के 5वें अध्याय में मिलता है।
कहते हैं, एक बार माँ पार्वती ने भगवान शिव के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखी, ‘प्रभु! अपनी भार्या सीता का परित्याग कर श्री राम ने अपना शेष जीवन कैसे जीया? तब महादेव माँ पार्वती को समझाते हुए सारगर्भित बात बोले, ‘उमा! एक राजा होने के नाते प्रभु श्री राम ने राज्य के प्रति अपने सभी कर्तव्यों और दायित्वों को पूर्ण किया। परन्तु सम्पूर्ण वैभवों से संपन्न अपने राजमहल में वे एक तपस्वी की भाँति रहे और राजर्षियों जैसा आचरण किया… आज उनके व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू, जिसमें वे एक गुरु की भूमिका में, एक ज्ञानी की भूमिका में उपस्थित हुए हैं, उसे मैं तुम्हारे समक्ष रखता हूँ।
भगवान शिव ने तदोपरांत माँ पार्वती को एक प्रसंग सुनाया- एक दिन प्रभु राम, जिनके चरणों की सेवा रमा जी करती हैं, एकांत में बैठे थे। तब वहां सुमित्रा के पुत्र लक्ष्मण जी पहुँचे और भक्तिपूर्वक प्रणाम कर अति विनीत भाव से बोले- ‘…हे प्रभु! योगीजन जिनका निरंतर चिंतन करते हैं, इस संसार से छुड़ाने वाले उन आपके श्री चरण कमलों की मैं शरण में हूँ। प्रभु, आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मैं सुगमता और शीघ्रता से इस अज्ञानरूपी अपार समुद्र के पार हो जाऊँ।’ लक्ष्मण जी के इस कथन से स्पष्ट है कि वे जगत जननी सीता के परित्याग की घटना के बाद अत्यंत व्याकुल थे। यूँ तो लक्ष्मण जी स्वयं ज्ञानवान हैं, शेषनाग के अंशावतार हैं; परन्तु फिर भी प्रभु की इस लीला के पीछे निहित कारण को वे जान नहीं पा रहे थे। अपने इसी अज्ञान को दूर करने के लिए वे विनम्रतापूर्वक प्रभु राम से प्रार्थना करते हैं। तब भूपाल शिरोमणि भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण को ज्ञानोपदेश देते हैं, जिससे उनका अज्ञान, मोह और दुःख दूर हो सके।
आत्मज्ञान की विस्तृत व्याख्या: प्रभु श्रीराम उन्हें समझाते हैं कि ‘इस संसार में सभी दुखों का मूल करण अज्ञान ही है और इसका नाश ज्ञान की तलवार से ही किया जा सकता है। उस एकमात्र ज्ञानस्वरूप, निर्मल और अद्वितीय बोध की प्राप्ति होने पर फिर अविद्या उत्पन्न नहीं होती। इसलिए लक्ष्मण मोक्ष प्राप्ति के लिए, यह ज्ञान ही अकेला समर्थ है। उसे किसी और की अपेक्षा नहीं है।’
ध्यानयोग- सर्वोच्च आध्यात्मिक साधना: श्री राम आगे कहते हैं- ‘हे सौम्य लक्ष्मण! जिस रघुकुल श्रेष्ठ, पुरुषोत्तम राम को तुम जानते हो एवं जिसे तुम अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में मानते आए हो, आज उसी राम के वास्तविक स्वरूप को मैं तुमसे कहता हूँ। मैं प्रकाशस्वरूप, अजन्मा, अद्वितीय, निरंतर भासमान, अत्यंत निर्मल, विशुद्ध विज्ञानघन, निरामय, क्रियाराहित एवं एकमात्र आनंदस्वरूप हूँ। हे अनुज! मैं सदा ही मुक्त, इंद्रियों से परे, सबके हृदय में वास करता हूँ। निरंतर मेरा चिंतन और ध्यान करने से अविद्या का नाश होता है। इसलिए तुम मेरे वास्तविक स्वरूप का ही ध्यान करो।’
निष्कर्षतः प्रभु श्री राम द्वारा व्यक्त इस गीता का सार तत्त्व भी वही है- ‘ब्रह्मज्ञान की ध्यान-साधना’। यदि हम माया और भ्रम के जाल से निकलकर आनंद को प्राप्त करना चाहते हैं, तो इसका एकमात्र उपाय है- गुरु द्वारा प्रदत्त ब्रह्मज्ञान की ध्यान-साधना। एक पूर्ण सतगुरु के सान्निध्य में शिष्य अपने भीतर अलौकिक दीपावली मनाता है। सतगुरु की कृपा से उसका हृदयकाश दिव्य दीपमालाओं, अनगिनत दीपशिखाओं व स्वर्णिम प्रकाश से अटा रहता है और यही इस प्रकाश के महोत्सव का सार्थक स्वरूप है। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।