देहरादून। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की शाखा, 70 इंदिरा गांधी मार्ग, (सत्यशील गैस गोदाम के सामने) निरंजनपुर के द्वारा आज आश्रम हॉल में दिव्य सत्संग-प्रवचनों एवं मधुर भजन-संर्कीतन के कार्यक्रम का विशाल पैमाने पर आयोजन किया गया। संस्थान के संस्थापक एवं संचालक ‘‘सद्गुरू श्री आशुतोष महाराज जी’’ की असीम कृपा से ‘साध्वी विदुषी ऋतम्भरा भारती जी’ ने बताया कि पूर्ण सद्गुरू से ‘ब्रह्मज्ञान’ की प्राप्ति के उपरान्त शिष्य का अपने गुरू के साथ प्रार्थना के माध्यम से प्रगाढ़ सम्बन्ध जब बन जाता है तो शिष्य को सदैव अपनी प्रार्थना उन तक पहुंच जाने का स्पष्ट आभास होने लगता है और सद्गुरू उसकी पुकार को सुनकर अपनी अनुकम्पाओं से उसे नवाज़तेे रहते हैं। यदि शिष्य की प्रार्थना सच्ची है, लोक कल्याणकारी है, निष्काम है तो गुरू द्वारा अवश्य ही सुनी जाती है। प्रार्थना में भावना का ही अधिक महत्व होता है, भारी- भरकम शब्दावली ही आवश्यक नहीं है। एैसी प्रार्थना के लिए ही कहा गया- ‘‘चींटी के पग नूपुर बाजें, सो भी साहिब सुनते हैं’’। महापुरूष कहते हैं कि शिष्य को प्रार्थना के बीज बोते रहना चाहिए, न जाने कब ‘गुरू- कृपा’ रूपी वर्षा होने लगे और बीज फलीभूत होने लग जंाए।
रविवारीय साप्ताहिक सत्संग कार्यक्रम का शुभारम्भ मन भावन भजनों की प्रस्तुति के साथ किया गया। संस्थान के संगीतज्ञों ने अनेक भजनों के गायन से भक्तजनों को अभिभ्ूात कर दिया। 1- है प्रार्थना चरणों में, विश्वास की डोरी टूटे ना- टूटे ना ……, 2- और न कुछ मैं चाहूॅ, यही चाहत है मन में …….. 3- जिस घड़ी सत्गुरू तेरा दीदार प्यारा पा लिया, मैंने इस दुनिया में ज़न्नत का नज़ारा पा लिया ……. 4- मेरे भोले- भाले आशु जी, तुमको हमारे दिल में रहना हैं……. तथा 5- दूर नहीं तू पास है, औरांे की क्या बात कहॅु, मेरे मन को अहसास है……. इत्यादि भजनों से खूब समां बांधा गया।
गुरू के ‘आशीष’ सब शिष्यों के लिए एक समान हुआ करते हैं-
-साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी
क्रार्यक्रम में साध्वी विदुषी जाह्नवी भारती जी ने दिव्य प्रवचन करते हुए भक्तजनों को बताया कि पूर्ण सत्गुरू अपने शरणागत् समस्त शिष्यांे पर अपनी करूणा, अपनी कृपा एक समान लुटाया करते हैं। जिस प्रकार बरसने वाले मेघ सम्पूर्ण धरा पर बिना किसी भेद-भाव के बरसा करते हैं, यह तो भूमि पर निर्भर करता है कि वह उपजाऊ है अथवा बंजर। सद्गुरू शिष्य का नव- निर्माण कर उसे उन्नत स्वरूप मे रूपंातरित करने का महती कार्य करते हैं। जिस प्रकार आभूषण की परख करने वाले को सुनार, ठोकरो में रौंदी जाती मिट्टी को गूंथ कर, उसे चाक पर चलाकर, मनचाहा आकार देकर और दहकती भट्टी में तपाकर निर्माण करने वाले को कुम्हार कहा जाता है ठीक उसी प्रकार एक पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरू अपने शिष्य को ‘ब्रह्मज्ञान’ की दिव्य अग्नि में तपाकर, उसके जन्म- जन्मान्तरों के कर्म- संस्कारों को भस्मीभूत करके, उसे एक दिव्यस्वरूप प्रदान कर दिया करते हैं। एैसा शिष्य जब गुरू की आज्ञा को शिरोधार्य कर गुरू द्वारा प्रदत्त समस्त नियमों को अपने जीवन में धारण करता है तो उसे अपने भीतर ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाया करती है और उसकी बाहर की दौड़ और बेचैनी स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं। साध्वी जी ने शिष्य के उन अनेक गुणों को भी रेखंाकित किया जिनके होने से उसके गुरू प्रसन्न हुआ करते हैं, उन्होनें महर्षि रमण जी तथा उनके शिष्यों से सम्बन्धित अनेकों दृष्टान्त रखतें हुए साधक की शास्त्र- सम्मत व्याख्या भी प्रस्तुत की और इससे भक्तों का मार्गदर्शन भी किया।
प्रसाद वितरण करके साप्ताहिक कार्यक्रम को विराम दिया गया।
भवदीय- दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान, देहरादून