देहरादून। ‘पर्व’ जीवन के उल्लास भरे अंतराल हैं। रोजमर्रा के मरुस्थल में सरसब्ज बाग की तरह हैं। भारतवर्ष के पर्वों की श्रृंखला देखें, तो एक-एक पर्व अपने में एक महान ऐतिहासिक गाथा समेटे हुए है। हमारे त्यौहारों में ऋषि-मनीषियों का दिव्य चिंतन छिपा है। आदर्शों और प्रेरणाओं की सुगंधि है। जीवन का ऊँचा मार्गदर्शन है। होली को ही ले लें। ‘मनोरंजन’ से भरा होली का त्यौहार ‘आत्म-मंथन’ के गीत भी गाता है। वैदिक काल में, होलिकोत्सव ‘विश्वदेव-पूजन’ के रूप में मनाया जाता था, जिसमें हमारे ऋषि यज्ञ-अग्नि का आह्वान किया करते थे। मंत्रोच्चारण की ध्वनियों के बीच गेहूँ, चना, जौं आदि के बीज तेज अग्नि में स्वाहा किए जाते थे। भावना यही होती थी कि वातावरण में दैवी तरंगें प्रबल हों और दानवी बलों का विनाश हो। गहराई में देखें, तो ‘होली’ शब्द का अर्थ ही है- बुराई को जलाना, स्वाहा करना! पुराणों में अनेक-अनेक राक्षसियों- होलिका, होलाका, पूतना, यहाँ तक कि कामदेव के दहन को होली-उत्सव से जोड़ा गया है। सबसे प्रचलितगाथा श्रीमद्भागवत महापुराण और नारद पुराण में पढ़ने को मिलती है। बात उस समय की है, जब धरा पर हिरण्यकशिपु का आतंकी साम्राज्य था। यह आततायी राक्षस स्वयं को ही ईश्वर मानता था और प्रजा से हठात् अपनी पूजा करवाता था। परंतु स्वयं उसी का पुत्र प्रह्लाद एक उच्चकोटि का नारायण-भक्त था। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद के अस्तित्व को खत्म करने के लिए कई षड्यन्त्र रचे। परंतु वह सबमें असफल रहा। अंततःहिरण्यकशिपु की बहन ‘होलिका’, जिसे अग्नि में न जलने का वरदान प्राप्त था, उसने प्रह्लाद को गोद में बिठाया और अग्नि की ज्वलनशील लपटों में जा बैठी। परंतु तभी प्रभु-कृपा से ऐसी हवा चली कि प्रकृति ने अपना स्वभाव बदल दिया। प्रह्लाद चंदन की तरह शीतल रहा और होलिका जलकर भस्म हो गई। बस तभी से भारतवर्ष में होलिकोत्सव मनाया जाने लगा। होलिका-दहन के प्रतीक रूप में स्थान-स्थान पर लकड़ियों का संगठन कर आग लगाई जाती है। होलिका की चिताग्नि से छिटकती ये चिंगारियाँ हर वर्ष विजय का उत्सव मनाती हैं। भक्ति की शक्ति पर विजय! विनम्रता की अहं पर विजय! सदाचार की दुराचार पर विजय! अंत में होलिका-दहन का एक वैज्ञानिक लाभ भी जान लेते हैं। यह पर्व सर्दियों की विदाई-बेला में आता है। इस वेला में, वातावरण व हमारी देह पर तरह-तरह के बैक्टीरिया अथवा कीटाणुओं की वृद्धि हो जाती है। ऐसे में, जब होलिका जलाई जाती है, तो ताप 145डिग्री फारेनहाइट तक पहुँच जाता है, जो इन कीटाणुओं को नष्ट करने में अहम् भूमिका निभाता है।
और यह प्रकृति का नियम है, वह तपाने के बाद शीतल फुहारें देती है। होली भी इसी प्राकृतिक लीला को दोहराती है। इसीलिए होलिका-दहन से अगले दिन जल-वर्षा करने और शीतल चंदन, अबीर आदि उड़ाने की परम्परा है। यह प्रथा साधकों को धीरज बंधा कर जाती है- जो जितना तपेगा, जितना अपने विकारों को जलाएगा, उतना ही उसका दामन भक्ति के इंद्रधनुषी रंगों में फबेगा। यही भारतवर्ष की होली है- इतनी ऊँची, इतनी गहरी! दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से सभी पाठकों को होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
श्री आशुतोष महाराज जी
(संस्थापक एवं संचालक, दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान)